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आदिनाथ-चरित्र ८६
प्रथम पर्व हैं, उनमें से कितने ही प्राणी जन्मसे ही अन्धे, बहरे, लूले
और कोढ़ी होते हैं ; कितने ही चोरी और जारी करनेवाले प्राणी, नारकीयों की तरह, भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा से निग्रह पाते हैं ; और कितने ही नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित होकर अपने पुत्रों से भी तिरस्कृत होते हैं। कितने ही मूल्य से बिके हुए-नौकर, गुलाम वगैर:-खच्चर की तरह अपने स्वामी की ताड़ना, तर्जना और भर्त्सना सहते, बहुतसे बोझ उठाते एवं भूख-प्यास का दुःख सहते हैं।
देशना की समाप्ति । 'परस्पर के पराभव से क्लेश पाये हुए और अपने-अपने स्वामियों के स्वामित्व में बँधे हुए देवताओं को भी निरन्तर दुखी रहना पड़ता है; स्वभावसे ही दारुण इस संसार में, दुःखों का पार उसी तरह नहीं है। जिस तरह समुद्र में जल-जन्तुओं का पार नहीं है ; जिस तरह भूत-प्रेतादिक से संकलित स्थान में मंत्राक्षर प्रतीकार करनेवाला होता है ; उसी तरह दुःख के स्थान-रूप इस संसार में जैनधर्म प्रतीकार करनेवाला है। बहुत बोझ से जिस तरह नाव समुद्र में डूब जाती है; उसी तरह हिंसा से प्राणी नरक-रूपी समुद्र में डूब जाता है, अतः हिंसा हरगिज़ न करनी चाहिये। निरन्तर असत्यका त्याग करना उचित है, क्योंकि असत्य वचनसे मनुष्य इस संसार में चिरकालतक उसी तरह भ्रमता है; जिस तरह तिनका हवा