________________
इतिहास
है। धर्म नैतिक कर्तृत्व का जनक है और धार्मिक नियमों का नैतिक अनुवर्तन वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन को संगठित तथा शक्तिशाली बनाता है। डाक्टर विश्वनाथ प्रसाद वर्मा ने लिखा है-- “मानव को क्षुद्रता तथा स्वार्थ के अतिक्रमण का संदेश तथा विशाल वृत्तों से तादात्म्य प्राप्त करने वाला कर्मयोग का संदेश भी धर्म से ही प्राप्त होता है। जब धर्म अहं भावोत्क्रमणकारी आत्मप्रसारणात्मक कर्मयोग का उपदेश देता है तब राष्ट्रवाद का वह व्यापक धरातल प्रस्तुत करता है...... धर्म जातोय संस्कृति और परम्परा का रक्षण कर राष्ट्रवाद का ठोस आधार पुष्ट करता है।'' प्राचीन भारत की राष्ट्रीय भावना में धर्म का तत्त्व ही प्रबल था। फिर ये धर्म हिन्दू हो, बौध्द हो या जैन ( उन दिनों भारत के यही प्रमुख धर्म थे। ) इनमें हिन्दू धर्म का स्थान अधिक महत्त्वपूर्ण था। राजा महाराजाओं द्वारा इन धर्मों को प्रश्रय मिलता था। विश्वामित्र के आदेश पर महाराजा दशरथ को अपने लाडले राम को उनके साथ भेजना पड़ा। वशिष्ठ की आज्ञा से राजा दशरथ कार्य करते थे। ईश्वरसिंह बैस ने लिखा है-- " प्राचीन भारत का राजा सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं की मुहर मात्र होता था। किसी भी सुधार या मान्यताओं की स्थापना राजा के हाथ में नहीं होती थी और न ही यह राज्य के कार्यक्षेत्र में शामिल होती थी।" २
राजनैतिक दृष्टि से भारत एक न होने पर भी सांस्कृतिक दृष्टि से एक था। बात यह थी कि भारतीय संस्कृति ने राजनैतिक भावना को उतना अधिक महत्त्व नहीं दिया। (जितना आज दिया जा रहा है। ) धर्म और संस्कृति के सम्बन्ध में भारत का दृष्टिकोण प्रारभ्भ से ही बड़ा व्यापक रहा है। जीवन में उन्हीं का महत्त्व है। भारतीय जनता इस लोक की अपेक्षा परलोक को या मुक्ति की अधिक चिंता करती आई है। जीवन के विश्वासों के आधार भौतिकता की तुलना में आध्यात्मिकता के अधिक रहे हैं। इसी से उपनिषदों की रचना भारत में संभव हो सकी। राधाकुमुद मुकर्जी ने ठीक ही लिखा- " भारत का भारतवासियों की मातृभूमि के रूप में विकास ब्रह्मांड के उस प्रक्रम के अनुसार ही हुआ है , जो ब्रह्म को घट में और घट को ब्रह्म में प्रकट करता है। यहाँ कोई ऐसी संकीर्ण संस्कृति नहीं है जो सार्वभौमिकता से रहित हो और न कोई ऐसी कल्पित संस्कृति है जो आश्रयहीन और इसीलिये निष्फल हो।
१. राजनीति और दर्शन--डा० विश्वनाथ प्रसाद वर्मा--पृ० २२१ । २. प्राचीन भारतीय शासन-ईश्वरसिंह बैस--सरिता, फरवरी-१९६२
पृ० ७६। . . . ३. हिन्दू संस्कृति में राष्ट्रवाद--राधाकुमुद मुकर्जी-पृ० ९० ।