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________________ ३४ आधुनिकता और राष्ट्रीयता नीति हमें बतलाती है --यह करो, यह न करो । ऐसे चलो, ऐसे न चलो; ऐसे बैठो, ऐसे न बैठो; ऐसे कहो, ऐसे न कहो। इसी प्रकार का विधान नैतिक रूप में हमारे सामने आता है । प्राकृतिक रूप में मनुष्य अनैतिक ही होता है । नैतिक नियमों द्वारा उसका संस्कार होता है। इस संस्कार के बाद ही वह संस्कृत बनता है । बालक जब संसार में पदार्पण करता है, तो उसे जगत का ज्ञान नहीं होता । वह अपने माता-पिता परिवार के अन्य सदस्यों और तत्पश्चात् वह अन्यों से भी जगत का ज्ञान प्राप्त करता जाता है । वह सारा समाज जिसके बीच बालक रहता है, उस बालक को अप्रत्यक्ष रूप से अपने विधान का ज्ञान करा देता है। धीरे धीरे बालक स्वयं उस विधान से परिचित होता जाता है और अपने आपको उसके अनुकूल बनाने का प्रयत्न करता है। समाज के प्रतिकूल आचरण करने पर दण्ड और अनुकूल आचरण करने पर पुरस्कार उसे मिलते रहते हैं। ये स्वयं उसे अपने आपको संस्कारित बना लेने के लिए बाध्य करते रहते हैं। समाज में नैतिक विधान होता है । यह विधान लिखा हुआ नहीं होता किन्तु फिर भी यह विधान लिखे हुए विधान से अधिक शक्तिशाली होता है । समाज का यह विधान जितना अधिक सुसंगठित और व्यवस्थित होगा, समाज उतना ही सुसभ्य और सुसस्कृत होगा । यह बात मानी हुई है कि सभ्य समाज में सरकार की आवश्यकता कम होती है । समाज में जिस प्रकार की सभ्यता और संस्कृति का निर्माण होता है उसी प्रकार की नैतिकता को वहाँ प्रश्रय मिलता है। आज मनुष्य प्रातःकाल से रात में सोने तक जितने नियमों का वह पालन करता है, उनको वह स्वयं नहीं जानता: खाने-पीने, रहने-सहने, उठने-बैठने, चलने-फिरने एवं जीवन के प्रत्येक व्यापार के नियम बने हुए हैं और इन नियमों का पालन मनुष्य बराबर करता जा रहा है। यदि इन्हीं नियमों का पालन आदेश देकर उससे करवाया जाता तो संभवतः वह नियमों के बोझ से मर जाता। किन्तु ऐसा नहीं होता। यह इसलिए कि जिस वातावरण में वह रहता आया है उसका वह आदी हो गया है। एक ही प्रकार का निरन्तर कार्य व्यक्ति को उस कार्य के प्रति सक्षम तो बनाता ही है साथ ही उस प्रकार के कार्य के प्रति रुचि और आस्था का निर्माण भी व्यक्ति में कर देता है। जो स्वभाव पड़ जाता है, वह फिर उसकी प्रकृति हो जाती है। भारत का रहने वाला अपने समाज को सभ्यता और संस्कृति का प्रेमी है। किसी अन्य देश के समाज के बीच वह अनोखेपन का अनुभव करेगा। उसका समायोजन शीघ्र नहीं होगा। किसी भी प्रकार के समाज के बीच रहने के लिए वहाँ के नैतिक विधान को
SR No.010027
Book TitleAadhunikta aur Rashtriyata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Bora
PublisherNamita Prakashan Aurangabad
Publication Year1973
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Social
File Size10 MB
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