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आधुनिकता और राष्ट्रीयता
कार्यान्वित करने का प्रयास हो रहा है। इस समय में इस विराट परिवर्तन में जो पहले की तुलना में अधिक गतिशील है और जिसका सम्बन्ध अब अपने देश मात्र से नहीं, विश्व के अन्य राष्ट्रों से भी है और यह परिवर्तन मूलतः देखने में बाह्य परिवर्तन प्रतीत होने पर भी अंतर को भी शीध्र बदल रहा है। इस परिवर्तन में सभ्यता का विकास हो रहा है । प्रश्न इस सयम यह है कि इस सभ्यता के साथ प्राचीन मूल्यों को लेकर कैसे जिएँ ? हमारा देश युगों से जिन सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करते आ रहा है, उसे वह परिवर्तनों के आधार पर सहसा छोड देने के लिए तैयार नहीं हो सकता। देश का आंतरिक जीवन नई सभ्यता को संदेह भरी दृष्टि से देख रहा है । जहाँ तक बाह्य जीवन के परिवर्तन वातावरण एवं यंत्रों से सम्बन्धित है, उन्हें वह सहर्ष स्वीकार कर रहा है, क्योंकि इससे सुखसुविधा में वृद्धि हो रही है किन्तु इस परिवर्तन से प्राचीन आस्थाएँ स्वयमेव लडखडा रही हैं। अतः एक अनास्थामुलक स्थिति का निर्माण हो रहा है। जीवन अधिक संघर्षमय होता जा रहा है । प्रतियोगिताओं में साथ देना पड़ रहा है। इस भागदौड़ में शांतिमय क्षण कम ही दिखाई दे रहे हैं। यों कहिए कि यह सारा द्वन्द्व सभ्यता और संस्कृति का द्वन्द्व है। आधुनिकता की पीड़ा यह है कि बदली हुई स्थितियों के अनुकूल अपनी प्राचीन नैतिकता को युगों से आए संस्कारों को या सांस्कृतिक मान्यताओं को लेकर नही जिया जा सकता। बदलना चाहने पर भो बदलना संभव नहीं लगता क्योंकि बाहय परिवर्तन की गति तीव्र है और इस गति से अंतर को बदलना बड़ा कठिन काम है। फिर सभ्यता भविष्योन्मुख है तो संस्कृति अतीतोन्मुख । इन दोनों में संतुलन स्थापित करना आज के युग की मुख्य समस्या है। आधुनिक युग की इस पीड़ा को व्यक्त करने से नई मानवीय दृष्टि का बोध हो सकता है। बर्टेड रसेल ने लिखा है कि-" राजा महाराजाओं के इतिहास का अध्ययन करके लोग गणतंत्रवादी बन गए ?" १ ठीक इसी तरह यदि आधुनिकता की विवृति में यदि मानवीय पीड़ा की विवृति हो जाय तो मानवीय संवेदना का क्षेत्र विस्तृत होगा। वैज्ञानिकता का प्रवेश पदार्थ जगत में दिखाई दे रहा है और उसके अनुसार जो परिवर्तन हो रहा है, वह हमारे बाहय जीवन से सम्बन्धित है, उस तुलना में सामाजिक रूप में, राष्ट्रीय रूप में एवं अंतर्राष्ट्रीय रूप में वैज्ञानिक दृष्टि से परिवर्तन नहीं हो रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मानव, पदार्थ नहीं है और उसके साथ पदार्थ सा व्यवहार नहीं किया जा सकता। इसीलिए अब आवश्यकता इस बात की है कि बदली हुई परिस्थितियों में मानवीय
१. वैज्ञानिक परिदृष्टि - बट्रेंड रसेल-(अनुवादक : गंगारतन पाण्डेय)- पृ. ६४