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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व / ११ धार्मिक एवं सामाजिक ह्रास, विदेशियों द्वारा सब प्रकार के शोषण और स्वयं अपनी चरित्रगत एवं मानसिक दुर्बलताओं की ओर गया, तो दूसरी ओर अपने महान् गौरवपूर्ण प्राचीन के साथ-साथ तड़ित्तेजनसम्पन्न नवीन आयामों की ओर उन्मुख हुआ । वह या तो अपने गौरव - पूर्ण अतीत को भूलकर पश्चिम का अन्धानुकरण करता, या नवीन शक्तियों के प्रति उपेक्षा या उदासीनता का भाव ग्रहरण करता - जैसा बहुत दिनों तक मुसलमानों ने किया । किन्तु समन्वय तो भारतीय जीवन का सारभूत अंश रहा है । उन्नीसवीं शताब्दी में ऐसा प्रतीत होता है . कि भारत की प्राचीन संस्कृति ही जैसे नवीन रूप धारण कर अवतरित हो रही थी । इस समय ज्ञान की परिधि का विस्तार हुआ और सामाजिक एवं धार्मिक सुधारवादी आन्दोलनों, कालानुसार राष्ट्रीयता, देश की एकता, नवीन नैतिकता, स्त्री-शिक्षा, ग्रार्थिक चेतना, भाषोन्नति और मानव-सापेक्ष्य नींव पर आधारित प्रात्मिक उत्थान की चेष्टा के फलस्वरूप चतुर्दिक सक्रियता दृष्टिगोचर होने लगी। कुछ लोगों ने तो उत्तर-मध्ययुगीन अंध-विश्वासों, पुराण पंथ, कुरीतियों एवं कुप्रथाओं को बनाए रखने की चेष्टा अवश्य की, किन्तु असफलता एवं निराशा के सिवाय उनके हाथ कुछ न लगा । भ्रष्ट लोक-परम्पराओं के स्थान पर स्वस्थ परम्पराएँ स्थापित करने के पुनीत प्रयास का उस समय जन्म हुआ । राष्ट्रीय जीवन के लगभग सभी जीर्णशीर्ण अंगों का इतने संकल्पात्मक रूप में विच्छेद करने का व्यापक प्रयास संभवत: पहले कभी नहीं हुआ था । बीसवीं शताब्दी भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परम्पराओं का वपन-काल होने की दृष्टि से उन्नीसवीं शताब्दी का निश्चय ही अत्यधिक महत्त्व है । वह भारत का नव जागरण काल था । उस समय उसने अपने को ही नहीं, दुनिया को नई दृष्टि से देखना सीखा । ऐसे समय में हिन्दी कथा - साहित्य का जन्म होना विशेष महत्त्व रखता है । नव जागरण की इन प्रवृत्तियों का उसके प्रारम्भिक स्वरूप पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था ।