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________________ * अन्तिम शुद्धि * किंचित् कर्म शेष रह जाएँ तो उन्हें भोगने के लिए, विमल पुण्य का पात्र बना हुश्रा जीव सर्वार्थसिद्धविमान आदि ऊँचे देवलोक में उत्पन्न होता है । अहमिद्र, इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश और लोकपाल इन पाँच श्रेष्ठ पदवियों में से किसी एक पदवी का धारक होकर अत्युत्तम सुखोपभोग करके, पुनः मनुष्यगति में जन्म लेता है और दस बोलों का धारक मनुष्य होता है: खेत्तं वत्थं हिरएणं च, पसवो दास पोरुस । चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जइ ॥ मित्तवं नाइवं होइ, उच्चागोए य वएणवं । अप्पायंके महापरणे, अभिजाए जसो बले ॥ -श्रीउत्तराध्ययन, अ० ३, गा० १७-१८ अर्थात्-वह पुण्यशाली पुरुष (१) खेत-बाग-बगीचे (२) महलहवेली (३) धन-धान्य (४) अश्व, गज आदि पशु, इन चार कामस्कंधों के समूह को प्राप्त करता है । इन चार वस्तुओं का स्कंध एक बोल समझना चाहिए । जीवन-सुख के लिए यह चार वस्तुएँ मूलतः आवश्यक हैं। अतः जहाँ यह स्कंध होता है वहीं वह पुण्यात्मा पुरुष उत्पन्न होता है । (२) वह उत्तम मित्रों वाला तथा (३) ज्ञाति वाला होता है। (४) उच्च गोत्र वाला (५) सुन्दर रूप वाला ६) रोगहीन शरीर वाला (७) महान बुद्धि का धनी (८) विनीत तथा सन्माननीय (8) यशस्वी और (१०) बलवान होता है । इस प्रकार सुखमय और गुणमय स्थिति में उत्पन्न होकर जब तक भोगावली कर्म का उदय होता है तब तक रूक्ष वृत्ति से भोग भोग कर पुनः संयम का आचरण करके, यथाख्यात चारित्र में रमण करता हुआ, समस्त कर्माशों का क्षय करके सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त कर अतुल और अनुपम सुखों का भोक्ता बन जाता है। अतुलसुहसागरगया, अव्वावाहमणोवमं पत्ता। सव्वमणागयमद्धं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ -श्रीउववाई सूत्र, २२
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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