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________________ ॐ अन्तिम शुद्धि [८३३ शरीर से ममता हटा कर शान्ति और समाधि के साथ मृत्यु का वरण किया जाता है, उसे समाधिमरण कहते हैं। समाधिमरण और आत्मघात में इस प्रकार बहुत अन्तर है। हट्टे-कट्टे नौजवान पढे संग्राम में मारे जाते हैं। उनका मरना आत्मघात नहीं कहलाता । बल्कि भगवद्गीता में तो यहाँ तक कहा है कि संग्राम में मृत्यु पाने वाले स्वर्ग में जाते हैं । तो जिस प्रकार बाह्य (द्रव्य) संग्राम में मरना आत्मघात नहीं गिना जाता, उसी प्रकार आध्यात्मिक शत्रुओं का नाश करने वाले भावसंग्राम में प्रवृत्त होकर शरीर का परित्याग करना आत्मघात कैसे गिना जा सकता है ? वस्तुतः वह आत्मघात नहीं है । नीयन्तेऽत्र कषायाः हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाया हेतबो यतस्तनुताम् ।। -पुरुषार्थसिद्धथु पाय अर्थात्-हिंसा के कारण रूप कषायों को कम करने के लिए जो कार्य किया जाता है उसे अहिंसा ही कहते हैं । अतः अहिंसा की सिद्धि के लिए किया जाने वाला सल्लेखनाव्रत भी अहिंसारूप ही है। उसमें आत्मघात रूप हिंसा किंचिन्मात्र भी नहीं है । (२) प्रश्न-शास्त्रकारों ने मनुष्यजन्म को अत्यन्त दुर्लभ बतलाया है, और मनुष्यशरीर की रक्षा एवं पालन-पोषण करने से ही शुद्ध उपयोग, व्रत, संयम आदि धर्म की साधना भी हो सकती है । अतएव ऐसे उपकारक शरीर की रक्षा करना ही उचित है । संथारा करके उसे नष्ट कर देना कैसे योग्य कहा जा सकता है ? उत्तर-आपका कहना सत्य है । हम भी यही जानते और मानते हैं। किन्तु जैसे कोई साहूकार द्रव्य को उपार्जन करने के लिए दुकान की हिफाजत करता है । फिर भी कभी दुकान में आग लग जाय तो वह जहाँ तक
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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