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________________ * अन्तिम शुद्धि * [८.१ (२७) विचक्षण वणिक् बहुमूल्य वस्तु को अल्प मूल्य में मिलती देखता है तो चुपचाप हर्ष और उल्लास के साथ उसे खरीद लेता है। इसी प्रकार स्वर्ग और मोक्ष के जो सुख मुनि महात्मा दुष्कर तप, संयम, ध्यान, मौन आदि साधना के द्वारा प्राप्त करते हैं, वही सुख केवल समाधिमरण से ही तुझे मिलता है। तुझे महामूल्य निर्वाण के सुख, समाधिमरण रूप अल्प मूल्य में ही प्राप्त करने का यह सुन्दर सुयोग मिला है । तो किसी भी प्रकार की आनाकानी या गड़बड़ी न करता हुआ व्यवहार में चुपचाप (मौन धारण करक) और निश्चय में समाधि भाव धारण करके उन महामूल्य सुखों को खरीद लेना ही कुशलता है । (२८) सुभटगण धनुर्विद्या आदि का अभ्यास करके और प्रयोग के द्वारा उसकी साधना करके सुमज्जित रहते हैं और जब कभी शत्रु का सामना होता है तो सिद्ध की हुई उस विद्या के द्वारा शत्रु को पराजित करके अपने किये हुए श्रम को सार्थक समझते हैं। इसी प्रकार हे प्राणी! तू ने इतने दिनों तक जो ज्ञानाभ्यास किया है, तप और संयम की महान् साधना की है, वह इसी अवसर के लिए तो की है। उस साधना की सार्थकता आंकने का यही समय है । यह समय जब आ पहुँचा है तो अब सच्चे अन्तःकरण से, परिपूर्ण निर्भयता के साथ रोग एवं मृत्यु आदि शत्रुओं का मुकाबिला कर । उनके सामने डट कर खड़ा हो जा और अपना चिरप्रतीक्षित ध्येय साध ले। (२६) लोक में उक्ति प्रचलित है-'अतिपरिचयादवज्ञा' अर्थात् जिसके साथ अत्यन्त परिचय हो जाता है, उससे स्वभावतः प्रीति कम हो जाती है । इस उक्ति के अनुसार शरीर के प्रति तेरी प्रीति अब कम हो जानी चाहिए, क्योंकि शरीर के साथ तेरा अनादिकाल का परिचय है। ___ (३०) उपयोग में लाते-लाते सुन्दर वस्त्र भी जब जीर्ण हो जाता है तो उस पर ममता नहीं रहती। उसे उतार कर फेंक दिया जाता है और हर्ष के साथ नूतन वस्त्र धारण कर लिया जाता है। इसी प्रकार यह श्रौदारिक शरीर अनेक कामों में आने से, रोगों के संयोग से तथा तप, संयम,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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