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________________ ८२८] * जैन-तत्त्व प्रकाश मृत्यु के समय में जो विषय-कषाय की भावना करता है, मोह-ममता आदि मलीन भावनाओं का सेवन करता है, वह नरक और निर्यञ्च आदि दुर्गतियों के दुःखों का भागी बनता है । इसके विपरीत जो सम्यक्त्वयुक्त त्याग, वैराग्य, व्रत, नियम, सत्य, शील, दया, क्षमा आदि गुणों का आराधन करता हुआ समाधिभाव धारण करता है, वह स्वर्ग-मोक्ष के सुखों का भाजन बनता है । इसलिए मृत्यु रूपी कल्पवृक्ष को पाकर अब शुभ भाव रखना ही योग्य है, जिससे परमानन्द-परमसुख की प्राप्ति हो सके । (१८) अशुचि से परिपूर्ण, फूटे हंडे के समान सदैव स्वेद, श्लेष्म, मल, मूत्र आदि विनावनी वस्तुएँ बहाने वाले इस जर्जरित औदारिक शरीर के फंदे से छुड़ा कर अशरीर ( सिद्ध भगवान् ) बनाने वाला या देवता के दिव्य शरीर को प्रदान करने वाला समाधिमरण ही है। अतएव समाधिमरण का स्वागत करना ही उचित है । (१६) जैसे धर्मोपदेशक मुनि महात्मा अनेक नय, उपनय, प्रमाण, हेतु, दृष्टान्त आदि के द्वारा शरीर का स्वरूप समझा कर ममत्व को घटाने का प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार मेरे शरीर में उत्पन्न हुआ यह रोग भी मुझे प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा मानों उपदेश दे रहा है कि-अरे जीच ! तू इस शरीर पर क्यों ममता करता है ? यह शरीर तेरा तो है नहीं। यह तो मेरे स्वामी काल का भक्ष्य है। अब तू इस पर अपनी ममता त्याग दे ! (२०) किं बहुना, यह शरीर मुझे तो मुनिराज से भी अधिक असरकारक उपदेश देने वाला मालूम होता है । क्योंकि जिस शरीर को मैं प्राणप्यारा समझ कर अनेक उपचारों से पाल-पोस कर फूला नहीं समाता था और जिसकी सुन्दरता तथा कोमलता आदि गुणों पर लुब्ध और मुग्ध हो रहा था, उस शरीर की ममता मनिराज के उपदेश से भी छूटना कठिन थी। किन्तु रोग होने पर अनेक प्रकार के उपचारों से निराश करके शरीर ने वह • ममता सहन ही छुड़ा दी।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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