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________________ * अन्तिम शुद्धि [८२७ D लिए यह मृत्यु रूपी तेजी का भाव आया है। इस अवसर पर चूकना नहीं चाहिए और पूरा-पूरा लाभ उठा लेना चाहिए । (१४) जैसे दिन भर की हुई मजदूरी का फल सेठ देता है, उसी प्रकार जीवन भर की हुई करनी का फल मृत्यु के द्वारा प्राप्त होता है। तो फिर मृत्यु से दूर क्यों भागना चाहिए ? डरना क्यों चाहिए ? मृत्यु का तो आभार मानना चाहिए। (१५) किसी राजा को किसी परचक्री राजा ने पराजित करके कारागार में कैद कर दिया । वह उसे भूख-प्यास, ताड़ना-तर्जना आदि के दुःखों से पीड़ित करने लगा । यह समाचार उसके किसी मित्र राजा को मिला । वह अपना दल बल लेकर आता है और अपने मित्र राजा को काराग्रह के कष्टों से छुड़ाता है । इसी प्रकार कर्म रूपी परचक्री राजा ने चेतन रूपी राजा को पराजित करके शरीर रूप काराग्रह में बन्द कर रक्खा है। रोग, शोक, पराधीनता श्रादि नाना प्रकार के कष्टों से वह आत्मा को पीड़ित कर रहा है। इन दुःखों से छुड़ाने के लिए मृत्यु रूपी मित्र राजा अपनी राजरोग आदि सेना सहित पाया है । अतएव यह मेरा महान् उपकारक है। इसी की सहायता और कृपा से मैं नाना कष्टों से छुटकारा पा सकूँगा और सुखी बन सकूँगा। (१६) भूत, भविष्य तथा वर्तमान काल में जिन्होंने स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम सुखों को प्राप्त किया है, करते हैं और करेंगे, सो सब समाधिमरण का प्रताप समझना चाहिए, क्योंकि समाधिमरण के विना स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः हे सुखार्थी आत्मन् ! तुझे समाधिमरण करना उचित है। (१७) कल्पवृक्ष की छाया में बैठकर जो जैसी शुभ या अशुभ भावना करता है, उसे वैसा ही शुभ या अशुभ फल प्राप्त होता है। अर्थात् शुभ अभिलाषा का शुभ फल और अशुम अभिलाषा का अशुभ फल प्राप्त होता है । यह मृत्यु भी कल्पवृक्ष के समान है। मृत्यु की छाया में बैठकर अर्थात्
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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