SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 860
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८१४ ] * जैन-तत्त्व प्रकाश * अनगारी संलेखना [आर्या छन्द] उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायाञ्च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः संलेखनामार्याः ॥ -रत्नकरण्डक श्रावकाचार । अर्थात्-प्राणान्तकारी उपसर्ग के आने पर, अन्न-पानी की प्राप्ति न हो सके ऐसे दुर्भिक्ष के पड़ने पर, वृद्धावस्था के कारण शरीर के अत्यन्त ही जीर्ण हो जाने पर, असाध्य रोग उत्पन्न हो जाने पर-इस प्रकार का संकट श्रा जाने पर जब प्राण बचने का कोई उपाय न हो-तब (अथवा निमित्त ज्ञान आदि के द्वारा अपनी आयु का निश्चित रूप से अन्त समीप आया जान कर) अपने धर्म की रक्षा के लिए शरीर का त्याग करना संलेखना तप कहलाता है, गणधरों ने कहा हैं संलेहणा हि दुविहा, अब्भन्तरिया य वाहिरा चेव । अभ्यन्तरा कसाएसु, बाहिरा होइ हु सरीरे ॥२११॥ -भगवती आराधना। अर्थात्-क्रोध श्रादि कषायों का त्याग करना आभ्यन्तर संलेखना है और शरीर का त्याग करना बाह्य संलेखना है। इस प्रकार संलेखना दो तरह की है: संलेखना को विधि-संलेखना को 'अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा झूसणा आराहणा' भी कहते हैं। जब मृत्यु निकट आ जाय तो उसे सुधारने के लिए धर्मसेवन पूर्वक शरीर का त्याग करने के लिए सावधान बनना चाहिए। जिनकी मनोकामना संसार के कामों से निवृत्त हो गई है, अर्थात् जिन्हें अब संसार का कोई भी कार्य नहीं करना है, वही श्रात्मार्थ का साधन करने के लिए अर्थात् संथारा करने के लिए तैयार हो सकते हैं । जो संलेखना करने को उद्यत हुआ है उसका कर्तव्य है कि पहले इस भव में सम्यक्त्व और व्रतों
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy