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________________ * अन्तिम शुद्धि * [८१३ ससरक्खामोसे, आउलमाउलाए, सुविणवत्तियाए, इत्थीविपरियासयाए, दिद्विविपरियासयाए, मणविपरियासयाए, पाणभोयणविपरियासयाए, जो मे राइसिय अइयारो को तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।' इस पाठ का उच्चारण करने के बाद कहना चाहिए:सागारिय अणसणस्स-आगारयुक्त अनशन (संथारे) का । पच्चक्खाणं-प्रत्याख्यान (नियम) फासियं-स्पर्शा पालियं-पाला सोहियं-शुद्ध किया तीरियं-पार पहुँचाया कित्तियं—कीर्तित-कीर्तियुक्त आराहियं–आराधित आणाए अणुपालियं-जिनाज्ञा के अनुसार पालन किया न भवइ-न हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं-इस सम्बन्ध का मेरा पाप निष्फल हो । यह सागारी संथारा की विधि है । कदाचित् चोर, सिंह, साँप, व्यन्तर, अग्नि, पानी आदि का ऐसा संकट आ पड़े जिससे प्राणान्त होने की संभावना हो या ऐसी ही कोई बीमारी अचानक उत्पन्न हो जाय और अनगारी संथारा करने का अवसर न हो तो वहाँ भी उक्त प्रकार से ही सागारी संथारा करना उचित है। ४ इस पाठ का अर्थ पौषधोपवास के वर्णन में आ चुका है। * नवकारसी आदि दस प्रत्याख्यानों को तथा पौषध एवं दया को पारते समय भी यह पाठ, बोलना चाहिए।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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