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________________ ७६२ ] जेन-तत्त्व एकाश. % E को न देखे या भली-भाँति न देखे तो अतिचार लगता है। क्योंकि न देखने से अथवा अच्छी तरह न देखने से त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा होने की सम्भावना रहती है। (२) अप्पमज्जियदुप्पमज्जियसेज्जासंथारए---शय्या और संस्तारक को विना पूँजे या यतनापूर्वक विना पूँजे उपयोग में लावे । (३) अप्पडिलेहियदुनाडिलेहि उच्चारपासवणभूमि--मल-मूत्र त्याग करने की भूमि को देखे नहीं, और देखे भी तो अच्छी तरह विधिपूर्वक न देखे। (४) अप्पमज्जियदुष्पमज्जिय उच्चारपासवणभूमि--भल मत्र त्यागने की भूमि का प्रमार्जन न करना अथवा विधिपूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रमार्जन न करना। (५) पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणयाए-पौषधवत का सम्यक् प्रकार से पालन न करना। अर्थात् ऊपर बतलाई हुई विधि के अनुसार पौषधव्रत ग्रहण न करे अथवा ग्रहण करके भी सम्यक् प्रकार से उसका पालन न करे-पूर्वोक्त अठारह दोषों में से कोई दोष लगावे । 'अरे ! आज मेरा अमुक जरूरी काम था. मैंने वृथा ही पोसा कर लिया' इत्यादि प्रकार से पश्चात्ताप करे, पौषध में पारणे के समय खाने-पीने की वस्तुओं का विचार करे, पौषध के बाद आरम्भ के कार्यों को करने का विचार करे, असम्बद्ध वचन बोले, अयतना से गमनागमन करे, साधु-साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि का अपमान करे, पौषध का समय पूर्ण होने से पहले ही व्रत को पार ले, पारते समय गड़बड़ करे, इत्यादि किसी भी प्रकार का दोष लगाने से अतिचार लगता है। इन पाँच अतिचारों और अठारह दोषों से रहित, प्रीति और हर्ष के साथ, पौषधव्रत का समाचरण करने से २७,७७,७७,७७,७७७ पल्योपम और एक पल्योपम के नौ भागों में से एक भाग अधिक काल की देवायु का बन्ध होता है । पौषत्रव्रत का यह फल व्यावहारिक या आनुषंगिक फल
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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