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________________ सागारधर्म-श्रावकाचार के [७८९ कायोत्सर्ग करेः लोगस्स कह कर कहे-परठने की क्रिया यथाविधि न,की हो छह काय के जीवों की विराधना की हो तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड' । कदाचित् बड़ी नीति का कारण उत्पन्न हो जाय तो पौषध में धारण किये वस्त्र तथा मुखवस्त्रिका ज्यों की त्यों रक्खे और किसी गृहस्थ के घर से लोटे आदि में अचित्त पानी लेकर एकान्त प्रासुक निर्जीव भूमि में निवृत्त होकर लघुनीति परठने की विधि के अनुसार ही करे । ऊपर से राख या धूल डाल देने से सजीव की घात का, सम्मूर्छिम जीवों का तथा वायुमंडल के दुर्गेधित होने का बचाव हो सकता है । श्लेष्म श्रादि परठने की भी यही विधि समझनी चाहिए। पौषध में विना कारण दिन में शयन नहीं करना चाहिए । दिन के चौथे पहर में अपने उपयोग में आने वाले वस्त्रों की, रजोहरण की तथा गुच्छक की प्रतिलेखना करे । संध्या समादेवसिक प्रतिक्रमण करे, एक पहर रात्रि तक धर्मध्यान करे। फिर निद्रा लेने की आवश्यकता हो तो रजोहरण से भूमिका और विस्तर की प्रमार्जना करे और ध्यान स्मरण करता हुआ हाथों-पैरों का विशेष संकोचन-प्रसारण न करता हुआ निद्रा से निवृत्त होकर पहर रात्रि रहते जाग जाय । फिर इरियावहिया तथा तस्सुत्तरी का पाठ बोल कर कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में चार बार लोगस्स का पाठ उच्चारण करे । नमोकार मंत्र कहता हुआ कायोत्सर्ग पारने का पाठ तथा एक बार लोगस्स का पाठ कहे । तत्पश्चात् निम्नखिखित पाठ बोले- . पडिक्कमामि-पाप से निवृत्त होता हूँ। पगामसिजाए-मर्यादित काल से अधिक निद्रा ली हो । निगामसिजाए-मर्यादा से अधिक लम्बा चौड़ा मोटा विस्तर किया हो। संथारा-उवट्टणाए-विछौने में विना [जे करवट बदली हो । परियट्टणाए-उक्त प्रकार बार-बार करवट बदली हो । आउदृणाए-विना पूँजे हाथ-पैर सिकोड़े हों ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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