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________________ ७८८] -जैन-तत्व प्रकाश ॐ अहोरत्तं पज्नुबासामि, दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि, मलसा वयसा कायसा । तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निन्दामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि ।' अर्थात्-ग्यारहवें पौषधव्रत में अन्न, पानी, पकवान, मुखवास-इन चारों आहारों का, अपि शब्द से सूंघने आदि के योग्य पदार्थों का, मैथुन सेवन करने का, पुष्पों एवं सुवर्ण की माला आदि आभूषणों का, हीरा, पन्ना, मोती, रत्न आदि जवाहरात का, तेल-चन्दनादि के विलेपन का, मूसल, खड्ग, चक्र आदि शस्त्रों का तथा पापमय मन वचन काय के व्यापार का, प्रथम व्रत के समान दो करण तीन योग से प्रत्याख्यान करे । इसके पश्चात् साधु-साध्वी के सन्मुख अथवा पूर्व-उत्तर दिशा के सन्मुख बैठे । बायां घुटना नीचे दबावे, दाहिना घुटना खड़ा रक्खे, दोनों हाथों को कमल की डोडी के आकार में जोड़ कर ललाट पर स्थापित करे और मस्तक झुका कर दो बार 'नमुत्थुणं' कहे । फिर किसी गृहस्थ से, जिसने पौषधव्रत अंगीकार न किया हो, रजोहरण, गुच्छक, लघुनीति परठने का भाजन आदि का उपयोग करने की आज्ञा ले । इस विधि के अनुसार पौषधव्रत ग्रहण करके उपदेशश्रवण, पुस्तकपठन, ज्ञानपरिवर्त्तना, प्रभु का स्मरण, धर्मकथा, धर्मध्यान आदि में अहोरात्रि व्यतीत करे । कदाचित् लघुनीति की बाधा हो तो उपाश्रय में मौजूद मृत्तिका श्रादि के भाजन में बाधा से निवृत्ति प्राप्त करके परठने के लिए बाहर जाते समय 'आवस्सई' शब्द तीन बार कहे । फिर हरितकाय, चींटी के बिल, दीमक आदि जीव-जन्तुओं से रहित प्रासुक जगह देखकर और उसे रजोहरण से पूँज कर 'अणुजाणह मे जस्सुग्गह' शब्द से शक्रेन्द्रजी की आज्ञा ग्रहण करके पेशाव परठ दे ! परठते समय इस बात का ध्यान रखे कि वह न तो बहने पावे और न एक ही जगह भरा रहे-इस प्रकार बिखेर-बिखेर कर परठे। परठ कर वोसिरे' शब्द तीन वार कहे । परठ कर स्थानक में प्रवेश करते समय 'निस्सही' शब्द का तीन वार उच्चारण करे । फिर भाजन को सुखा कर एकान्त में यतना से रख देवे। फिर पूर्वोक्त प्रकार से इरियावही का
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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