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________________ ७६०) ® जैन-तत्त्व प्रकाश, ऐसा आत्मवल प्राप्त कर लेता है कि जिससे उन व्रतों का सुखपूर्वक निर्वाह हो सके । इस कारण भी इन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। (३) जैसे राजा या न्यायाधीश अपराध करने वाले को शिक्षा (दण्ड) देकर भूतकाल के अपराधों से निवृत्त करता है और भविष्य के लिए सावधान कर देता है, उसी प्रकार गुरु आदि, उक्त पाठों व्रतों में प्रमाद आदि किसी कारण से हुई त्रुटि के लिए इन चार शिक्षाव्रतों में से किसी व्रत का दण्ड दे देते हैं, जिससे भूतकालीन दोषों की शुद्धि हो जाय और भविष्य में सावधानी रहे । इस कारण भी यह शिक्षाव्रत कहलाते हैं। शिक्षाव्रत चार हैं-(१) सामायिकवत (२) देशाक्काशिकवत (३) पौषधोपवासव्रत और (४) अतिथिसंविभागवत । इन चारों का स्वरूप भागे क्रमशः प्रदर्शित किया जाता है: नौवाँ व्रत-सामायिक जीव अजीव श्रादि समस्त पदार्थों पर तथा शत्रु-मित्र पर समभाव की प्रवृत्ति होना, आत्मा का आत्मस्वरूप में रमण करना निश्चय सामायिक है ।* * सामायिक का स्वरूप इस प्रकार है: समता सर्वभूतेषु, संयमः शुभभावना । आर्तरौंद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिक व्रतम् ॥ अर्थात्-प्राणी मात्र के प्रति समता का भाव रखना, पाँचौ इन्द्रियों को वश में रखना, हृदय में शुभ भावना रखना और भार्तध्यान तथा रौद्रध्यान का त्याग करके धर्मभ्यान में लीन होना सामायिकवत है। इस सामायिकवत का अधिकारी कौन है, किसे पूरी तरह सामायिकक्त की प्राप्ति होती है, इस विषय में श्रीअनुयोगद्वारसूत्र में कहा है जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तरस सामाश्य होद, शवलिभासिये ।।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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