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* सागारधर्म - श्रावकाचार *
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है, जिनका फल बड़ी कठिनाई से भोगना पड़ता है। ऐसा जान कर श्रावकों को प्रमादारित अर्थदण्ड से सदैव बचते रहना चाहिए ।
(३) हिंसाप्रदान या हिंसावचन - अर्थात् विना प्रयोजन हिंसक साधनों को देना और हिंसाकारी वचन बोलना । जैसे
सुकडित्ति सुपक्किति, सुच्छिन्ने ह
सुट्टिए सुलट्ठित्ति, सावज्जं वज्जए मुखी ||
—दशवेकालिकसूत्र
अर्थात्(- मकान, वस्त्र, आभूषण, पकवान आदि को देखकर कहना कि—'बहुत अच्छा बनाया ।' वृक्ष आदि के फलों को तथा माल-मसाले से युक्त भोजन को देखकर कहना - 'बहुत बढ़िया पकाया है ! यह खाने योग्य बना है !' तथा फल, शाक, भाजी आदि को बारीक काटा देख कर कहना'बहुत सुन्दर काटा है ! यह मण्डप आदि बहुत अच्छा बनाया है ! इस काठ पर या इस पाषाण पर कोरनी बहुत बढ़िया की है ! कृपण का धन चोर ने चुरा लिया, मकान जल गया या दिवाला निकल गया सो अच्छा ही हुआ ! वह दुष्ट, पापी, अन्यायी, पाखण्डी या साँप - बिच्छू, खटमल, मच्छर आदि मर गये सो अच्छा ही हुआ ! उनका मर जाना ही अच्छा था ! घर, दुकान, दही तथा हार-तोरे आदि को देख कर कहना -- इन्हें बहुत अच्छा जमाया है । किन्हीं मनोरम स्त्री-पुरुष को देखकर कहना -- यह हृष्टपुष्ट हैं, जल्दी ही इनका विवाह कर दो ! यह बकरा खूब मस्त है, यह वघ करने योग्य है । यह सब और ऐसे ही अन्य वचन हिंसा की प्रशंसा रूप होने से तथा हिंसा की वृद्धि करने वाले होने के कारण बोलने योग्य नहीं हैं।
इसी प्रकार हिंसाजनक अन्य वचन बोलना भी अनर्थदण्ड ही है । जैसे- - स्नान कर लो, फूल-फल, धान्य आदि अभी सस्ते हैं, इन्हें खरीद लो । खा लो । बैठे-बैठे क्या करते हो, कुछ रोजगार धन्धा करो, वर्षा का. मौसम आ गया है अपना घर सुधरवा लो, खेत को सुधार लो, धान्य बोओ, सर्दी बहुत पड़ रही है तो अलाव जला कर ताप लो, पानी का छिड़काव
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