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________________ ® सागारधर्म-श्रावकाचार [७५१ तथा चूहा मारने के लिये बिल्ली पालना, बिल्ली को मारने के निमिच कुत्ता पालना, शिकारी कुत्ते आदि पाल कर बेचना, इत्यादि इस प्रकार के धंधे करना असतीजनपोषणकर्म कहलाता है । दया की भावना से अथवा किसी दुखी पशु-पक्षी मनुष्य की रक्षा करने के उद्देश्य से जीवों का पालन किया तो दोष नहीं है। उक्त पन्द्रह ही कर्मादान विशेष कर्मबंधन के कारण हैं, क्योंकि इनमें जीवहिंसा की अधिकता है । कितनेक व्यापार ऐसे भी हैं जो अनर्थकारी हैं अथवा निन्दित हैं । अतएव यह श्रावक को करने योग्य नहीं हैं। किन्तु कदाचित् उसी व्यापार से आजीविका चलती हो तो उसकी मर्यादा अवश्य करनी चाहिए । जैसे अानन्द श्रावक ने ५०० हलों की जमीन रक्खी थी। सकडाल कुंभार निम्बाड़े पचा कर ही अपनी आजीविका करते थे। इस प्रकार जो श्रावक वीसों अतिचारों से बच कर सातवें व्रत का पालन करते हैं, वे मेरु पर्वत के बराबर पापों से बच जाते हैं और सिर्फ राई के बराबर पाप ही उन्हें लगता है । वे शारीरिक आरोग्यता और मानसिक शान्ति, निराकुलता, संतोष और सुख के साथ अपना जीवन व्यतीत करके स्वर्ग के और क्रमशः मोक्ष के अनन्त सुख के भोक्ता बन जाते हैं। आठवां व्रत-अनर्थदण्डविरमण दण्ड दो प्रकार के हैं अर्थदंड अनर्थदंड । अपने शरीर आदि की रक्षा के लिए अथवा कुटुम्ब-परिवार, समाज-देश आदि के पालन-पोषण करने के लिए जो श्रारंभ होता है. वह अर्थदण्ड कहलाता है। और विना प्रयोजन अथवा प्रयोजन से अधिक जो श्रारंभ किया जाता है, वह अनर्थदंड कहलाता है । अर्थदंड की अपेक्षा अनर्थदंड में ज्यादा पाप होता है, क्योंकि अर्थदंड में प्रारंभ करने की भावना गौण और प्रयोजन को सिद्ध करने की भावना प्रधान होती है, जब कि अनर्थदंड में प्रारंभ करने की बुद्धि प्रधान होती है और प्रयोजन एक होता नहीं ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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