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________________ ७५० 1 ॐ जैन-तत्व प्रकाश • (१२) निलञ्छन कर्म — बैल, घोड़े आदि पशुओं को खस्सी करना । (अंडकोष फोड़कर उन्हें नपुंसक बनाना) उनके कान, नाक, सींग, पूँछ यदि अंगों को छेदन करना, मनुष्यों को नाजर करना (अंग-भंग करके नामर्द बनाना), इस प्रकार के कार्य निलञ्छन कर्म कहलाते हैं । (१३) दवाग्निदापनिकाकर्म - बाग-बगीचा में, खेत में तथा जंगल में धान्य, घास या वृक्ष अधिक उगाने के लिए आग लगाना । कई भील आदि असंस्कारी लोग धर्म समझ कर जंगल में आग लगा देते हैं । यह 'दवग्गिदावयाकर्म' कहलाते हैं । (१४) सरद्रताला वशोषण कर्म - तालाब, कुंड, आदि जलाशयों को सुखाने का कार्य करना । ( इससे उस जल काय की हिंसा तो होती है, जलाशय में रहे हुए मछली आदि त्रस जीवों की भी अपरिमित हिंसा होती है।) (१५) असती जनपोषणकर्म - असली अर्थात् दुराचारिणी स्त्रियों का पोषण करके उनसे दुराचार का सेवन करवा कर द्रव्य उपार्जन करना *; * सतियों को पाल-पोस कर दुराचार करवा कर आजीविका चलाना अतीव गर्हित निर्लज्जतापूर्ण और पापमय कार्य है । इसके फलस्वरूप समाज में दुराचार की, व्यभिचार की प्रवृत्ति बढ़ती है, बहुतों का जीवन नष्ट हो जाता है और गर्भपात आदि घोर अनर्थ होते हैं। कितनेक लोग ‘असईजन' की जगह भ्रम से या धोखा देने के लिए 'असंजईजन' पाठ बदल देते हैं और कहते हैं कि असंयत अर्थात् अती का पोषण करने से कर्मादान का पाप लगता है । किन्तु ऐसा पाठ और अर्थ शास्त्रविरुद्ध है । उपासकदशांगसूत्र में उल्लेख नन्द दावकों के यहाँ हजारों-हजारों गायें थीं। भगवनसूत्र में, तु गियानगरी के श्रावकों की ऋद्धि का वर्णन करते कहा है कि उन श्रावकों के यहाँ गायें, भैंसे, बकरे यदि पशु बहुत थे और दास-दासियाँ भी बहुत थीं । वे सब असंयमी ही होने चाहिए, फिर भी श्रावक उनका पालन-पोषण करते थे । अगर उनका पोषण न किया जाता तो पहले व्रत का पाँचवाँ अतिचार 'भत्तपाणविच्छेए' नामक अतिचार लगता । इसलिए जो लोग सूत्रपाठ को उलट कर या बदल कर उलटा अर्थ करते हैं वे वज्र-कर्मों का बंधन करते हैं । म चाहने वालों को उनके चक्कर में नहीं आना चाहिए और ऊपर जो अर्थं किया है वही अभ यथार्थ समझना चाहिए । न तो दया करने से वंचित होना चाहिए और न दान देने से ही । दया-दान से आत्मा का परम कल्याण होता है ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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