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________________ ७४८ ] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश मका के मुद्दे, बाग में भूँजे गये हों तो उनमें कई दानें सचित्त ( कच्चे ) भी रह जाते हैं। उन्हें चित्त समझ कर खाने से अतिचार लगता है । (४) दुष्पक्वभक्षण - जो वस्तु बहुत पक कर बिगड़ गई हो, सड़ गई हो, दुर्गन्धित हो गई हो, जिसमें त्रस जीव उत्पन्न हो गये हों, ऐसी वस्तु को खाने से अतिचार लगता है । (५) तुच्छभक्षण – ईख, सीताफल, बोर, सेंमले की फली आदि वस्तु, जिसमें खाद्य अंश बहुत कम और फैंकने योग्य अंश ज्यादा होता है, खाने सेतिचार लगता है । पन्द्रह कर्मादान (१) अंगार कर्म - कोयला बना-बना कर बेचने का व्यापार करना, तथा लुहार, सुनार, कुम्भार, हलवाई, भड़भूजा, धोबी, कसेरा, धातुमार, भील और गिरनियों आदि का व्यापार करना, जो कि अग्नि के आरम्भ से होता है । (२) वन कर्म - बाग-बगीचा- बाड़ी आदि में फल, फूल, भाजी आदि उत्पन्न करके बेचने का धन्धा करना, कुँजड़े का व्यापार करना, वन में से वास, लकड़ी काट कर लाना और बेचना कन्दमूल लाकर बेचना, सुथारी का धन्धा करना, यह वनकर्म है । (३) शकटकर्म — गाड़ी, रथ, छकड़ा बग्घी, तांगा, म्याना, पालकी, नाव, जहाज आदि बना-बनाकर बेचना या उनके उपकरण चक्र श्रादि बेचना | (४) भाटीकर्म – ऊँट, घोड़े, गधे, बैल, गाड़ी, जहाज आदि को भाड़े पर दूसरों को देना । (५) स्फोटकर्म - जमीन को फोड़ने का व्यापार करना, मिट्टी, पत्थर, कंकर, सुरड़, सिला, रेल के कोयले आदि को खुदवाकर उनका व्यापार
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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