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________________ ७४० ] * जैन-तत्त्व प्रकाश * लुब्धता व धारण करे। अपनी आवश्यकताओं को कम से कम बनाना और सन्तोषवृत्ति को अधिक बढ़ाना इस व्रत का प्रधान प्रयोजन है । ज्योंज्यों यह प्रयोजन पूरा होता जाता है त्यों-त्यों जीवन हल्का और अनाकुलतापूर्ण बनता चला जाता है । बाईस अभक्ष्य ओला घोरवड़ा निशिभोजन बहुवीजा बेंगन संधान, बड़ पीपल ऊंबर कठूबर, पाकर फल जो होय अजान । १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ कन्दमूल माटी विष आमिष मधु मक्खन अरु मदिरापान, २० २१ २२ फल अति तुच्छ तुषार चलितरस जिनमत यह बाईस अखान ।। (१-५) बड़ के फल, पीपल के फल, गूलर के फल, कठूमर के फल और पाकर (पर्कटी) के फल, इन पाँच प्रकार के फलों में बहुत से सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं और अनगिनती त्रस जीव भी होते हैं। गूलर आदि के फल को तोड़ने से त्रस जीव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। (६) मदिरा-महुए के तथा खजूर के फल को या द्राक्ष आदि को सड़ा कर मदिरा बनाई जाती है । सड़ाने से उनमें अगणित जीव पैदा होते हैं । मदिरा में उनका अर्क भी शामिल ही निकलता है । मदिरा के सेवन से लोग पागल हो जाते हैं, बेभान होकर अन्टसन्ट बकते हैं और मल-मूत्र के स्थानों में और सड़कों पर गिरते-पड़ते बुरी हालत को प्राप्त होते हैं। माता, भगिनी और पुत्री के साथ भी कुकर्म करने पर उतारू हो जाते हैं। मदिरापान का व्यसन अतिशय निन्दनीय और अहितकारी है। इसके चंगुल में फसने वाला पुरुष जीवन को पूरी तरह बर्बाद कर लेता है । शराबी को सभी
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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