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________________ ७३० ॐ जैन-तस्य प्रकाश राय न लगे और स्वयं अधिक से अधिक प्रारम्भ से बचे, ऐसा प्रयत्न करे। एक निश्चित किये परिमाण से अधिक न रक्खे । (8) कुविययथापरिमाण-घर-गृहस्थी के फुटकल सामान का इच्छित परिमाण करे । तांबे, पीतल, कांसे, शीशे, कथीर, लोहे, जर्मनसिलवर आदि के बने हुए थाल, कटोरा, घड़ा, लोटा आदि बरतनों का, मिट्टी और काष्ठ के बरतनों का, कागज आदि गला कर बनाये हुए ठोठे आदि का तथा कीलों और छुटियों का और पहनने-अोड़ने के वस्त्रों वगैरह का परिमाण कर लेना चाहिए। यह सब वस्तुएँ कुविय में सम्मिलित हैं। यह जितनी कम होंगी उतनी ही उपाधि कम होगी। कहा भी है-'जितनी सम्पत्ति उतनी विपत्ति' अर्थात् काम में तो थोड़े ही बरतन आदि आते हैं पर सारसम्भाल सब की करनी पड़ती है। घर में ज्यादा बिखेरा होने से उनमें नीलन-फूलन अनन्त काय जीवों की तथा त्रस जीवों की उत्पत्ति का भी प्रसंग होता है । उन वस्तुओं की सार-सम्भाल करने में उन जीवों की भी हिंसा हो जाती है । ऐसा जान कर अधिक सामान बढ़ाना उचित नहीं है। अतएव आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का प्रत्याख्यान कर देना ही उचित है। पाँचवें व्रत का प्रत्याख्यान एक करण तीन योग से ग्रहण किया जाता है। अर्थात् मैं इतने परिग्रह से अधिक मन, वचन, काय से नहीं रक्खेंगा, इस प्रकार त्याग किया जाता है। पुत्र आदि अन्य को रखने देने का और रखने वाले को अच्छा जानने का नियम गृहस्थ से निभना कठिन है, क्योंकि कभी-कभी वह पुत्र आदि को व्यापार आदि करके धनवृद्धि करने के लिए कह देता है। अगर पुत्र आदि ने व्यापार करके धनलाभ किया हो तो उससे प्रसन्नता भी आ जाती है । फिर भी पाप से जितना बचाव हो सके उतना ही कल्याणकर है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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