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________________ ® सागारधर्म-श्रावकाचार 8 وامي ] दो से अधिक मंजिल वाला मकान हवेली या महल कहलाता है, जो शिखरबन्ध हो वह प्रासाद कहलाता है । व्यापार करने की जगह को दुकान कहते हैं, माल-किराना आदि रखने की जगह को बखार या गोदाम कहते हैं, जमीन के अन्दर बने घर को भौंयरा (भृगृह) कहते हैं, बाग,बगीचे में बने घर को बंगला कहते हैं, घास-फूस के बने घर को कुटी या झौंपड़ी कहते हैं । इन सब में से जिस-जिसकी जितनी आवश्यकता हो उतने नगों की, लम्बाईचौड़ाई की मर्यादा करके, उससे अधिक रखने का प्रत्याख्यान करे । रहने को मकान पर्याप्त हों तो नया बनवाने का प्रारम्भ न करे। कदाचित् पर्याप्त मकान न हो तो बने हुए घर भी विकाऊ मिल सकते हैं। द्रव्य के खर्च की अोर न देखकर आत्मा की ओर देखना चाहिए और यथासम्भव प्रारम्भ से बचना चाहिए। फिर भी काम न चलता हो तो मकान की संख्या तथा लम्बाई-चौड़ाई की मर्यादा करके अधिक मकान बनवाने का तथा अपनी नेश्राय में रखने का भी त्याग कर दे। (३-४) हिरण्य-सुवर्णयथापरिमाण-हिरण्य अर्थात् चांदी का और सुवर्ण अर्थात् सोने का इच्छित परिमाण करे। जैसे थप्पी, लगड़ी या डली आदि बिना घड़ा हुआ सोना या चांदी और मुद्रिका, कंठी, कड़ा, हार, नूपूर आदि श्राभूषण धड़ा हुआ सोना-चांदी । इनकी कीमत का, नग का तथा वजन का परिमाण करे । जहाँ तक पुराने आभूषणों से काम चलता हो, नये आभूषण न बनवाए । क्योंकि अग्नि का प्रारम्भ जहाँ होता है वहाँ छहों कायों की हिंसा होती है । बने-बनाये आभूषण मिलते हों तो प्रारम्भ करके वृथा कर्म-बन्ध करना उचित नहीं है। कदाचित् इस प्रकार काम न चले तो नये जेबर बनवाने के नग, तोल और कीमत का परिमाण करे तथा अपने नेश्राय में रखने का भी परिमाण करे। परिमाण से अधिक का त्याग करे । (५) धनयथापरिमाण- अर्थात्-नकद द्रव्य का इच्छित परमाण करना । सरकार की ओर से प्रचलित सिक्के, जैसे पाई, पैसा, इकन्नी, दुअन्नी, चुचन्नी, अठन्नी, रुपया, मोहर, नोट आदि की तथा हीरा,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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