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________________ '७१६] * जैन-तत्व प्रकाश * “पुरुष वेश्या के साथ गमन करे तो उसका व्रत दूषित हो जाता है, क्योंकि जब वेश्या किसी की स्त्री नहीं है तो उसकी भी कैसे हो सकती है ? स्वदार तो-बही कहलाती है जिसका पंचों की साक्षी से विधिपूर्वक प्राणिग्रहण किया हो, उससे भिन्न जितनी भी स्त्रियाँ हैं वे सब परस्त्री हैं। जो पुरुष -उक्त विचार से वेश्यागमन करता है उसे अनाचार लगता है अर्थात् उसका व्रत भंग हो जाता है। (२) अपरिग्गहियागमणे-पाणिग्रहण होने से पहले ही, जिस स्त्री के साथ सगाई (वाग्दान) सम्बन्ध हुआ है, उसके साथ गमन करे तो अतिचार लगता है। (१) कोई ऐसा विचार करे कि मैंने परस्त्री का प्रत्याख्यान किया है, परन्तु यह कुमारिका अभी परस्त्री (दूसरे पुरुष की स्त्री) नहीं हुई है, इसके साथ गमन करने में क्या हानि है ? ऐसा सोच कर कुँवारी के साथ गमन करे तो अनाचार लगता है। क्योंकि अपनी विवाहिता स्त्री से भिन्न सभी स्त्रियाँ परस्त्री ही हैं। इसके अतिरिक्त ऐसा कुकर्म राज्यविरुद्ध है, जातिविरुद्ध है और अनीतिमय है। कदाचित् गर्भ रह जाय तो जगत् में निन्दा होती है, मुँह दिखलाना कठिन हो जाता है और उस बेचारी कन्या की तो सम्पूर्ण जीवन ही बर्बाद हो जाता है। ऐसे कुकर्म के फलस्वरूप गर्भपात और आत्मघात जैसे भयंकर दोष उत्पन्न होते हैं। (२) कोई ऐसा तर्क करे कि विधवा किसी की स्त्री नहीं है, उसके साथ गमन करने में क्या हानि है ? ऐसा सोच कर अगर कोई विधवा के साथ संभोग करता है तो उसे भी अनाचार का पाप लगता है, क्योंकि पति की मृत्यु के पश्चात् भी वह विधवा उसी की स्त्री कहलाती है। जब तक विधिवत् पाणिग्रहण न किया जाय तब तक कोई भी स्त्री स्वस्त्री नहीं कहला सकती। इसके अतिरिक्त विधवागमन से लोकापवाद, दुराचार की वृद्धि, गर्भपात, बालहत्या और आत्मघात आदि महाभयंकर अनर्थ होते देखे जाते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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