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________________ * सागारधर्म-श्रावकाचार * दूसरे व्रत के पाँच अतिचार [ ६६७ 1 (१) सहसभक्खाण - बिना सोचे-समझे किसी पर झूठा कलंक चढ़ा देना दूसरे व्रत का अतिचार है । जैसे कौवा हृष्ट-पुष्ट पशु को देखकर दुखी होता है, क्योंकि वहाँ उसे खाने को कुछ नहीं मिलता है, उसी प्रकार दोषगवेषी लोग, ज्ञानी, गुणी, ब्रह्मचारी, शुद्धाचारी, श्रीमान्, बुद्धिमान्, तपस्वी, क्षमावान् आदि सत्पुरुषों को देखकर, उनकी कीर्ति एवं महिमा को सुनकर सहन नहीं कर सकते हैं, अतः उन पर मात्सर्य भाव धारण करते हैं । सत्पुरुषों के सदाचरण को देखकर लोग दुर्गुणियों के दुर्गुणों के ज्ञाता बन जाते हैं । इससे दुराचारियों एवं कुकर्मियों के कृत्यों में विघ्न खड़ा होता है । तब वे उनके गुणों को श्राच्छादित करके अपना इष्ट साधने के लिए उन पर मिथ्या कलंक चढ़ाने के लिए कहते हैं - हम इन्हें खूब जानते हैं। यह ब्रह्मचारी कहलाते हैं पर गुप्त रूप से व्यभिचार का सेवन करते हैं, aurat कहलाते हैं मगर छिपे -छिपे मौज उड़ाते हैं। ऊपर से क्षमावान् दिखाई देते हैं किन्तु भीतर क्रोध की ज्वालाएँ जल रही हैं। बाहर से शुद्धाचारी मालूम होते हैं, भीतर पोल ही पोल है । वाक्याडम्बर से पण्डित मालूम होते हैं, पर मैंने परीक्षा करके देख लिया है, कुछ भी नहीं जानते । इस प्रकार मिथ्या दोषारोपण करके ज्ञानी, गुणी पुरुषों की, सन्तों की, सतियों की निन्दा करके कठिन कर्मों का बन्ध करते हैं । उस बाँधे हुए कर्म के फलस्वरूप वे इस लोक में तथा परलोक में वैसे ही कलंकों से कलंकित होते हैं, जैसे कलंक दूसरों पर उन्होंने लगाये थे । ऐसा भगवतीसूत्र के पाँचवें शतक के छठे उद्देशक में कहा है। इसके अतिरिक्त उन्हें मुख सम्बन्धी अनेक रोग भोगने पड़ते हैं । वे नरक-तिर्यञ्च आदि दुर्गतियों में चिरकाल तक भटकते हैं । यह अतिचार ऐसे चिकने कर्मों के बन्ध का कारण है। ऐसा जानकर श्रात्मसुखार्थी श्रावक इसका परित्याग करते हैं । (२) रहस्याभ्याख्यान - अर्थात् गुप्त बात को प्रकट करने से भी प्रतिचार लगता है । प्रत्येक वनस्थ भूल का पात्र हैं। वीतराग भगवान् के
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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