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________________ ६६ ६] * जैन-तस्व प्रकाश * (५) कूटमाती - अर्थात् झूठी गवाही देना। कितनेक वकील वैरिस्टर आदि द्रव्य के लोभ में फँस कर कितनेक न्यायाधीश आदि रिश्वत खाकर और कितने ही लोभी एवं खुशामदी लोग स्वजन मित्र आदि की शर्म या ममता में फँसकर न्यायालय में, पंचसभा में या अन्यत्र झूठी गवाही देते हैं या सच्चे को झूठा और झूठे को सच्चा सिद्ध करते हैं। न्यायी को अन्यायी और न्याय को न्यायो बना देते हैं । किन्तु जब सच्चा मनुष्य झूठा बन जाता है तो उसकी आत्मा को बड़ा ही क्लेश होता है। यहाँ तक कि कभी-कभी वह अपघात भी कर लेता है । यह कूटसाक्षीमृषावाद इस प्रकार अर्थ उत्पन्न करने वाला है । जब सत्य बात प्रकाश में भाती है तो असत्य साक्षी देने वालों को राजदण्ड और पंचदण्ड तथा अपयश श्रादि अनेक संकट भोगने पड़ते हैं । अतः महापाप का कारण और दोनों भवों में दुःखदाता जान कर श्रावक झूठी गवाही देने का त्याग करते हैं । इस प्रकार इन पाँच तरह के झूठों में प्रायः सभी स्थूल झूठों का समावेश हो जाता है। श्रावक इसका प्रत्याख्यान पहले व्रत की तरह दो करण तीन योग से करते हैं । उनके लिए सिर्फ अनुमोदन खुला रहता है । इसका कारण यह है कि गृहस्थ को कभी-कभी इस प्रकार के असत्यों से भी प्रसन्नता का अनुभव होता हैं । उदाहरणार्थ - 'तुम्हारी भोली कन्या का सम्बन्ध प्रपंच करके अच्छी जगह कर दिया है, फलां मकान या खेत मच्छी कीमत में बेच दिया है, झूठी साक्षी दिलवा कर तुम्हारे पुत्र को छुड़वा दिया है, धरोहर रखने वाला मर गया है और उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं है, इत्यादि बातें सुन कर मन में खुशी आ जाती है। मगर इससे भी अपने आपको बचाने का सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए । 69 पाप छिपाया ना छिपे, छिपे तो मोटा भाग । दाबी दूबी नहीं रहे, रुई लपेटी आग || अर्थात- जैसे रुई में श्रंगार छिपाया नहीं छिपता है, उसी प्रकार पाप भी छिपाने से नहीं छिप सकता ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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