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और कृतघ्नता करना कितना घोर पाप है ? ऐसा जानकर धर्मात्मा जन कदाचित् दूध देना बन्द कर देने पर, वृद्धावस्था या रोग आदि से अशक्त हो जाने पर, न तो उनके खान-पान में अन्तराय डालते हैं, न उन्हें घर से निकाल देते हैं और न घातकों को सौंप देते हैं। बल्कि अपने कुटुम्बी जनों के समान उम्र भर उनका पालन-पोषण करते हैं।
सम्भव है किसी मनुष्य से या पशु से किसी काम का बिगाड़ हो जाय तो विचारना चाहिए कि - जान-बूझकर तो कोई किसी काम को बिगाड़ता नहीं है, अगर इससे कुछ विगाड़ हो गया है तो किसी कारण से, भूल से या परवशता से हो गया है। ऐसा सोचकर जैसे कोई बच्चा काम विगाड़ देता है तो उसे नादान समझ कर क्षमा कर दिया जाता है, उसी प्रकार भोले मनुष्यों को तथा पशुओं को भी नादान समझ कर क्षमा कर देना चाहिए | उन्हें वचन मात्र की शिक्षा ही काफी है, भूखा-प्यासा रखना उचित नहीं है । कदाचित् ऐसी स्थिति का जाय कि भूख-प्यास का दण्ड दिये विना सुधार नहीं हो सकता, तो जब तक उन्हें खिला-पिला न दे तब तक स्वयं भी नहीं खाना-पीना चाहिए। हाँ, ज्वर आदि की निवृत्ति के लिए लंघन कराना पड़े तो वह बात दूसरी है । *
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यस्मिन् जीवति जीवन्ति, वहवः स तु जीवति । काकोऽपि किं न कुरुते, खब्वा स्वोदरपूरणम् ॥
अर्थात् -- जिसके सहारे बहुत जीव जिन्दे रहते हैं, वही वास्तव में जिन्दा हैं । wer ना पेट तो कौवा भी भर लेता है।
* श्री उपासकदशागसूत्र के प्रथम अध्ययन में भगवान् महावीर ने आनन्द शावक को के अतिचार बतखाले समय प्रथम व्रत के अतिचारों में कहा है
'भक्तपाणबुच्छे ।'
अर्थात्-शक्ति होने पर भी जो किसी के आहार -पानी में अन्तराय देना उसे पहले वल के अतिचार का पाप लगेगा। मानो इसीलिए सवा पहर दिन चढ़े तक भावक अभंगद्वार रखते थे, जिससे कोई भूखा-प्यासा अपने द्वार पर आकर निराश होकर लौट जाय। कोई कह सकता है कि श्रावक तो साधुजी को दान देने के लिए द्वार खुला