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________________ 44 ® जैन-तत्व प्रकाश प्राय से महंगाई या दुष्काल आदि के प्रसंग पर उन्हें भूखा-प्यासा न रक्खे, क्योंकि कहा है-'अन्नं वै प्राणा:' अर्थात् अन्न प्राण हैं, अन्न के विना कोई जीवित नहीं रह सकता । भूख, प्यास के कारण क्रोध की, धृष्टता की और वैर की वृद्धि होती है। भूखे.प्यासे का हृदय बड़ा ही व्याकुल रहता है, जिससे चिकने कर्मों का बन्ध होता है । कितनेक निर्दय और स्वार्थी लोग वृद्धावस्था या रोग आदि के कारण निर्बल या निकम्मे हुए माता-पिता आदि स्वजनों को; दास, दासी आदि को निर्माल्य, ठंडा, वासी, खराब हुआ भोजन देते हैं, नौकरी कम देते हैं, गाय, बैल आदि पशुओं को घास, दाना, पानी खराब या कम देते हैं। पाय भैंस, बकरी जब दूध देना बंद कर देती हैं तो उन्हें बाँटा नहीं देते हैं । कितनेक दुष्ट लोग तो कृतघ्नता करके वृद्ध, निकम्मे पशु को कसाई को बेच देते हैं। यह कितना जबर्दस्त अन्याय है ? ऐसे काम श्रावकों को कदापि नहीं करने चाहिए। श्रावक को समझना चाहिए कि जैसे हम आराम चाहते हैं, उसी प्रकार सब जीव श्राराम चाहते हैं। फिर स्वयं तो सब प्रकार से मुखी रहना, जितना सुकाल में खाते थे उतना ही दुष्काल में खाना और अपने आश्रितों को तरसाना दयालु का काम नहीं है। माता पिता आदि का अपनी सन्तान पर बड़ा उपकार है। उन्होंने अनेक कष्ट सहन करके हर प्रकार से अपना पोषण-तोषण करके सुखपूर्वक में बड़ा किया है। बड़े कष्ट से उपार्जित की हुई लक्ष्मी भी हमारे सिपुर्द कादी है। उन्होंने यह सब इसलिए किया है कि यह हमारी वृद्धावस्था में इमें पाराम देगा, हमारा पालन-पोषण करेगा। ऐसी स्थिति में उनके प्रति कतन्त्रता दिखलाना और विश्वासघात करना घोर पातक है। किनकी मिहनत से कमाई हुई दौलत से सेठ सुखोपभोग कर रहे हैं, आगुमास्ता प्रादि को, जिन्होंने उम्र भर सेवा चाकरी करके सुख-सुविधा पहुंचाई है. ऐसे दास-दासियों को, बद्धावस्था में अथवा रोग आदि के कारण की जाके पर दुखी अवस्था में छोड़ देना या वेतन काम करके उनकी
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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