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________________ ६७६ 1 * न-तत्व प्रकाश* (४) पृथ्वी खोदते हुए कदाचित् त्रस जीव का घात हो जाता है, छान कर पानी पीने पर भी सूक्ष्म त्रस जीव उसमें रह सकता है, अग्नि का आरम्भ करने पर कदाचित् त्रस जीव उसमें गिर जाता है और मर जाता है, गमनागमन करते या शयनासन करते समय कोई त्रस जीव दब कर मर जाता है । इस प्रकार त्रस जीवों को बचाने का उपयोग रखने पर भी हिंसा हो जाती है । उसका पाप तो लगता है किन्तु व्रतभंग नहीं होता। चौबीस स्थान के थोकड़े में बारह प्रकार के अव्रत कहे हैं-छह काय के छह अवत, इन्द्रियों के पाँच अव्रत और एक मन का अव्रत । इन वारह अव्रतों में से पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक को त्रस जीव के एक अव्रत के सिवाय शेष ग्यारह अव्रत लगते रहते हैं। जिनमें त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा हो ऐसे कार्य जान-बूझ कर करने वाला श्रावक नहीं हो सकता, अतः जिन-जिन कार्यों में त्रस जीवों की हिंसा होती है, ऐसे कार्यों में से कुछ यहाँ बतलाये जाते हैं। ऐसे कार्यों से श्रावक को निवृत्त होना चाहिए:(१) प्रहर रात्रि व्यतीत होने के बाद और सूर्योदय से पहले बुलन्द आवाज से बोलना नहीं चाहिए, क्योंकि बुलन्द आवाज से हिंसक प्राणी जाग कर हिंसा में प्रवृत्त हो जाते हैं, नजदीक के मनुष्य एवं पशु जागृत होकर मैथुनसेवन, कूटना, पीसना, पकाना आपि प्रारम्भ के कार्यों में प्रवृत्त हो जाते हैं । अत: उक्त समय में जोर से नहीं बोलना चाहिए। (२) रात्रि के समय राँधना, झाड़ना, छाछ बिलौना, स्नान करना, वस्त्र धोना, मुसाफिरी करना, खान-पान* करना, इत्यादि प्रवृत्तियों से त्रस जीवों की हिंसा होती है। मृतस्वजनगोत्रेऽपि सतकं जायते किल । अस्तं गते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ।। अर्थात्-स्वजन, स्वगोत्री की मृत्यु हो जाने पर सूतक गिनकर भोजन नहीं किया जाता तो दिन के नाथ सर्व के अस्त हो जाने पर भोजन कैसे किया जाय ? अर्थात् नहीं करनी चाहिए। रक्तं भवन्ति तोयानि, प्रचानि पिशितानि च । रात्रिभोजनसक्तस्प, भोजनं क्रियते कथम् ।।।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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