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________________ * मिथ्यात्व * [५३७ होना मानते हो तो जीव नित्य नहीं रहा अर्थात् जीव का भी उत्पाद और विनाश होना मानना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में धर्मकरनी का फल कौन पाएगा? (प्रतिपक्षी चुप) अच्छा, और पूछते हैं। माया मूर्तिक है या अमूर्तिक है ? अगर मूर्तिक है तो अमूर्तिक ब्रह्म में मूर्तिक माया कैसे मिली ? और जो मूर्तिक माया अमूर्तिक ब्रह्म में मिली ही कहोगे तो फिर ब्रह्म भी मूर्तिक या मूर्तिकमिश्र हो जायगा। और जो माया को अमूर्तिक कहोगे तो फिर माया से पृथ्वी आदि मूर्तिक पदार्थ कैसे बने ? इत्यादिक न्याय से ब्रह्मा सृष्टि का कर्ता, विष्णु पालनकर्ता और महादेव संहारकर्ता है, यह आपका कथन कपोलकल्पित ही मालूम पड़ता है। यह कथन प्रमाण से सिद्ध नहीं होता। भव्य जीवो ! इस प्रकार के भ्रम में मत पड़ो और निश्चय समझो कि पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पशु, पक्षी, जलचर, मनुष्य, नरक, स्वर्ग इत्यादि सब पदार्थ अनादि और अनन्त हैं। इन पदार्थों को न कोई उत्पन्न करता है और न कोई इनका प्रलय करता है । जो इनकी आदि बतावे, उससे पूछा जाय कि अण्डा और पक्षी, बीज और वृक्ष, स्त्री और पुरुष, इनमें पहले कौन हुआ और पीछे कौन हुआ ? इसका उत्तर वे कुछ भी नहीं दे सकेंगे। क्योंकि अण्डे के विना पक्षी की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और पक्षी के विना अण्डे की उत्पत्ति नहीं हो सकती। बीज के विना वृक्ष नहीं उगता है और विना वृक्ष के बीज नहीं पैदा होता है। सबका कारण-कार्य सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। इसलिए ये सब पदार्थ अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहेंगे। जो कोई ईश्वरवादी पूछे कि यह सब विना बनाये कैसे हो गये १ तो उनसे पूछना चाहिए कि ब्रह्म को किसने बनाया ? तब वे कहेंगे-ब्रह्म तो स्वयं सिद्ध अनादि अनन्त है, तो हम भी कहते हैं कि जैसे तुम ब्रह्म को स्वयं सिद्ध अनादि अनन्त मानते हो, तैसे ही हम भी सृष्टि को स्वयं सिद्ध
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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