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________________ मिथ्यात्व [५३३ जगत् रूप मूर्तिमान् है और आत्मरूप अमूर्तिक भी है। इस प्रकार ब्रह्म के दो रूप हैं । इसलिए ब्रह्म सब कार्य करके भी अलग-अलिप्स ही रहता है। ____ पूर्वपक्षी-प्रापका यह कथन निरर्थक है, क्योंकि आप एक ही वस्तु को मूर्त भी कहते हैं और अमूर्त भी कहते हैं । एक व्यक्ति राग-द्वेष के काम भी करे और राग-द्वेष से लिप्त भी न हो, यह कदापि नहीं हो सकता। प्रतिपक्षी-ब्रह्मा सष्टि बनाता है, विष्णु उसका पालन करता है और महादेव संहार करता है । यह तीनों देवों के अलग-अलग तीन कार्य हैं। पूर्वपक्षी-अगर ऐसा है तो ब्रह्मा और महादेव में परस्पर बड़ा ही विरोध हुमा । ब्रह्माजी जो बनाते हैं, महादेवजी उसे बिगाड़ देते हैं, तो आपस में विरोधी हुए। प्रतिपक्षी-इसमें विरोध की कोई बात नहीं है, क्योंकि ईश्वर अपने ही तीन रूप बनाकर तीन काम करता है। वे अलग-अलग नहीं हैं, जिससे परस्पर में विरोध हो। पूर्वपक्षी-तो फिर पहले ऐसी वस्तु बनाता ही क्यों है जिसका वाद में संहार करना पड़ता है ? इससे ईश्वर या सष्टि दोनों में से एक का स्वभाव तो अन्यथा हुआ ही। और ईश्वर का स्वभाव पलटने का कारण क्या है ? (प्रतिपक्षी चुप रहा, तब पूर्वपक्षी फिर पूछता है.) किसी को मन्दिर बनवाने की इच्छा होती है तब वह पहले उसका नक्शा बनाता है । फिर इंट-चूना आदि सामग्री इकट्ठी करता है। बिना सामग्री के कोई वस्तु नहीं बनती । कपड़ा बनाने के लिए सूत और घड़ा बनाने के लिए मिट्टी की आवश्यकता होती ही है। तो ब्रह्मा सष्टि किससे बनाता है ? जब ब्रमा ने सृष्टि बनाई तो उस समय क्या दूसरी सृष्टि मौजूद थी ? उस समय ब्रह्मा एक ही था तो पृथ्वी बनाने की सामग्री वह कहाँ से लाया ? अगर वह सामग्री ब्रह्म में से निकली कहो तो ब्रह्म साकार हुआ। अगर वह सामग्री पहले से ही मौजूद मानते हो तो ब्रह्मा की तरह सामग्री भी नित्य हुई। इस प्रकार दोनों की कथा असंगत है। इसके अतिरिक्त जब सृष्टि रची होगी तब पहले एक वस्तु पनाई फिर दूसरी बनाई, इस प्रकार क्रम से रचना की माता ने भनेक स बनाकर
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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