SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 563
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * मिथ्यात्व * [ ५१६ करके उसी को चढ़ाते हैं । उनका यह भोलापन खेद और आश्चर्य उत्पन्न करने वाला है । वे एक ओर कहते हैं कि तुलसी में हरि का निवास है, अंतएव जो तुलसी का छेदन करते हैं वे हरि का छेदन करते हैं, और दूसरी तरफ प्रतिदिन तुलसी का छेदन-भेदन करने में धर्म मानकर उसे देवों को चढ़ाते हैं । धर्म के मर्म को न समझने वाले बहुत से भाई धर्मार्थ बड़े-बड़े वृक्षों का जड़ से छेदन कर डालते हैं । दूब को पत्तों को, फूलों को, शाखाओं को छेदन करके मंडप सजाते हैं और मालाओं एवं गजरों से अपने आराध्य देव को प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं। यह भी कितनी बड़ी मुग्धता है ? वे कहते हैं कि सृष्टि के स्वामी भगवान् हैं। फिर भगवान् की क्स्तु भगवान् को ही समर्पण करने से वे कैसे प्रसन्न और सन्तुष्ट होंगे ? भगवान् क्या पत्र, पुष्प, फल, आदि के भूखे हैं ? पत्र पुष्प आदि तुम उन्हें चढ़ाओगे तभी वे तृप्त होंगे ? बिना चढ़ाए भूखे रहेंगे ? कितनी विचारहीन मान्यता है ! भगवान् का नाम लेकर अपना मतलब गांठते हैं । भगवान् स्वयं तो कुछ भी खाते-पीते नहीं हैं, मगर पुजारी लोग भोले भक्तों को बहका कर चढ़ावा करवाते हैं और भगवान् के नाम पर भोगोपभोग के पदार्थ प्राप्त करके अपनी इन्द्रियों का पोषण करते हैं। उन्होंने अपना यह सिद्धान्त बना लिया है दुनिया ठगना मक्कर से, रोटी खाना शक्कर से 1 कहावत है— 'जहाँ लोभी बहुत होते हैं वहाँ धूर्त भूखे नहीं मरते ।' इसी कहावत के अनुसार इस संसार का व्यवहार चल रहा है ! कुछ लोग कीड़ी, खटमल, डांस, मच्छर, जूँ, लीख, बिच्छू, सांप, मकोड़ा आदि को प्रलय के ( मरने वाला) जीव कहते हैं, यह मरने के लिए ही उत्पन्न हुए हैं, ऐसा मानते हैं। ये जीव संसार में कंटक रूप हैं, इसलिए इनके मारने में पाप नहीं है, ऐसा मानने वाले भोले भाइयों से पूछना चाहिए कि आप इन्हें कंटक रूप क्यों मानते हैं ? वे उत्तर देंगे - ये हमें दुःख देते हैं इस कारण कंटक रूप हैं। अब जरा विचार कीजिए कि वे बेचारे नासमझ जीव हैं, थोड़ी-बहुत हानि पहुँचा देते हैं; मगर जो लोग उन्हें जान से मार
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy