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________________ ५१८ ] चारी होकर लोग हिंसा कर रहे हैं। ऐसे लोगों की क्या गति होगी ! सारांश यह है कि यज्ञ आदि किसी भी निमित्त से हिंसा करना पाप का कार्य है । जो हिंसा त्यागी न जा सकती हो, उसे भी अधर्म तो मानना ही चाहिए | * जन-तत्त्व प्रकाश 1 कितनेक लोग अपने माने हुए प्रभु को तथा गुरु को हिंडोले में लाते हैं, उनके पास अनेक प्रकार के बाजे बजाते हैं, उन्हें पंखा झलते हैं और ऐसा करने में धर्म मानते हैं । किन्तु वास्तव में ऐसे ढोंग करने से धर्म नहीं होता है । कोई-कोई मूल, दूब, शाखा, प्रतिशाखा, पत्र, पुष्प, फल, धान्य आदि वनस्पति का आरंभ छेदन-भेदन करके देव गुरु को चढ़ाने में धर्म मानते हैं । किन्तु विष्णुपुराण में कहा है: - मूले ब्रह्मा त्वचि विष्णुः शाखा शंकर एव च । पत्रे -पत्रे देवनाम्, वृक्षराज ! नमोस्तुते ॥ अर्थात् - हे धर्मराज ! वनस्पति एवं वृक्षादि के मूल में ब्रह्मा का निवास है; त्वचा (छाल) में विष्णु का निवास है, शाखाओं में शिव-शंकर का निवास है और पत्ते पत्ते में देवताओं का वास है । इसलिए हे वृक्षराज ! तुझे नमस्कार । इस प्रकार वनस्पति छेदन - भेदन करने योग्य नहीं है । तुलसी को वैष्णव भाई विष्णु नारायण की स्त्री कहते हैं, फिर उसी का छेदन - भेदन अर्थात् - ज्ञान रूपी पाल से चारों ओर घिरे हुए, ब्रह्मचर्य और दया रूपी पानी से भरपूर, पाप रूपी कीचड़ को दूर करने वाले अत्यन्त निर्मल भाव तीर्थ में स्नान करके : जीव रूपी कुण्ड में स्थित, दम रूपी पवन से प्रज्वलित की हुई, ध्यान रूपी अग्नि में अशुभ कर्म रूपी समिधा ( लकड़ियाँ ) डाल कर उत्तम होम करो । धर्म, काम और अर्थ का नाश करने वाले, दुष्ट कषाय रूपी पशुओं का शान्ति रूपी मन्त्र पढ़ कर यज्ञ करो। ऐसे यज्ञ का ही ज्ञानियों ने विधान किया है। इसी प्रकार मन रूपी घोड़े का यज्ञ करना अश्वमेघ यज्ञ है, असत्यवचन रूप गाय का यज्ञ करना गोमेध यज्ञ है, इन्द्रिय रूप ज का यज्ञ करना अजमेध यज्ञ है, कामदेव रूप पुरुष का यज्ञ करना नरमेध यज्ञ है । इस प्रकार के यज्ञ पूर्वोक्त रीति से करने चाहिए । हिंसात्मक यज्ञ म्लेच्छता के परिचायक हैं ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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