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________________ *मिथ्यात्व * [५१५ चित्तं रागादिभिः क्लिष्टमलीकवचनैर्मुखम् । जीवहिंसादिभिः कायो, गंगा तस्य पराङ्मुखी ॥ जिसका चित्त राग-द्वेष आदि दोषों से दूषित है, जिसका मुख असत्य वचनों से दूषित है और जिसकी काया जीवहिंसा आदि पापों से दूषित है, उससे गंगा विमुख होकर रहती है। अर्थात् गंगा उसे तार नहीं सकतीपवित्र नहीं करती। अग्नि सदा जलती रखना, धूप-दीप करना, धूनी तपना और यज्ञ-हवन आदि करना, इत्यादि कामों को भी कोई-कोई धर्म मानते हैं । इस पर भी जरा विचार करना चाहिए । अग्नि जैसी राक्षस! वस्तु को संसार में कोई भी तृप्त नहीं कर सकता । अग्नि जिस दिशा में जाती है, उस दिशा के प्राणियों को स्वाहा कर डालती है । ऐसी सर्वभक्षी-सदा अतृप्त रहने वाली श्रग्नेि का पोषण करने में धर्म किस प्रकार हो सकता है ? हवन की सुगंध से वायु का शुद्ध होना दूसरी बात है, मगर उसे धर्मकृत्य कैसे माना जा सकता है ? उस सुगंध के प्रभाव से स्वर्ग की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? घोर आरंभ-समारंभ होने से उलटा अधर्म ही होता है। हवन के धुएँ से अगर वृष्टि होती ही हो तो अनेक देशों में दुष्काल की बदौलत लाखों मनुष्य और पशु मरते हैं और मारवाड़ में पानी के अभाव में लोग हैरान-परेशान होते हैं, तो उसकी रोक क्यों नहीं होती ? प्रत्येक घर में प्रतिदिन भोजन बनाया जाता है । आग जलाई जाती है और उसका बेशुमार धूम भी होता है । अगर धूम से वर्षा होती ही हो तो फिर दुष्काल क्यों पड़ता है ? ___ कई, अनार्य लोग तो यहां तक कहते हैं कि 'यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः' अर्थात् विधाता ने पशु यज्ञ करने–आग में होमने के लिए ही बनाये हैं। अश्वमेध, गोमेध, नरमेध, अजामेध आदि यज्ञ करके यज्ञकुंड में जीवित घोडा, गाय, मनुष्य, बकरा-बकरी को भस्म कर डालने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, वर्षा होती है या इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है, ऐसा कहना कितना आश्चर्यजनक है ! अफसोस ! हजार बार अफसोस ! कितनी अधम मान्यता है ? जिन उत्तम प्राणियों से जगत् का व्यवहार भलीभाँति चल रहा है
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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