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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश
खा नहीं सकता, लञ्जा निवारण के लिए पूरे वस्त्र नहीं पा सकता और रहने के लिए पड़ी भी नहीं पाता । इस घोर विषमता का कारण क्या है ? कारण यही है कि जीव को अपने किये हुए पाप और पुण्य का फल भोगना पड़ता है । जो जैसे कर्म करेगा वह वैसे ही फल भोगेगा । इस प्रकार विचार करके नास्तिकों के फन्दे में न पड़ कर सुख के अभिलाषी मनुष्यों को धर्म की श्राराधना करनी चाहिए ।
(३) अज्ञानवादी - अज्ञानवादी के ६७ भेद हैं । अज्ञानवादी सात प्रकार से विकल्प करते हैं - ( १ ) जीव का अस्तित्व है (२) जीव का नास्तित्व है (३) अस्तित्व नास्तित्व दोनों हैं ( ४ ) जीव को अस्ति कहना नहीं (५) नास्ति भी कहना नहीं (६) अस्ति नास्ति दोनों कहना नहीं (७) जीव
अस्तित्व और नास्तित्व के लिए हाँ भी नहीं कहना । जिस प्रकार जीव के विषय में यह सात विकल्प कहे, इसी प्रकार अजीव के विषय में भी सात विकल्प जानने चाहिए । इस तरह नौ तत्वों पर सात-सात विकल्प होने से ६+७= ६३ भेद अज्ञानवादी के हो जाते हैं ।
सांख्यमत, शैवमत, वेदमत और वैष्णवमत, यह चार मत इसी की शाखा में गिने जाते हैं, क्योंकि यह भक्तिप्रधान मत हैं। यह ज्ञान और क्रिया की विशेष अपेक्षा नहीं रखते । अतः इन चारों को ६३ भेदों में मिला देने से अज्ञानवादी के ६७ भेद हो जाते हैं ।
वाद का मत है कि ज्ञान ही सब अनर्थों की जड़ है। ज्ञानवान् लोग विवादी होते हैं और विवाद में विरोधी पक्ष वाले का बुरा सोचना पड़ता है। इससे पाप लगता है। ज्ञानी पग-पग पर डरता है, इस लिए उसे हर समय कर्म का बंध होता रहता है। इससे तो अज्ञानी अच्छे हैं। न जानते हैं, न तानते हैं । न किसी के साथ विवाद करते हैं, न किसी को सच्चा झूठा कहते हैं । अज्ञानी पुण्य और पाप को समझते नहीं हैं, इस कारण उन्हें दोष भी नहीं लगता। जो जान बूझ कर पाप करता है, वही पापी कहलाता है । अतः अज्ञान ही उत्तम है । यही कल्याणकारी है ।
अपने सिद्धांत का इस प्रकार प्रतिपादन करने वाले अज्ञानवादी से