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________________ * मिम्यात्व [ ५११ हृतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हता चाज्ञानिनां क्रिया । क्रियावादी - क्रियावादियों का मत है कि समस्त पदार्थ अस्थिर हैं | आत्मा भी अस्थिर है। अतएव उसमें क्रिया (पुण्य-पाप) संभव नहीं है । किसी-किसी का कहना है कि आत्मा आकाश के समान सर्वव्यापक और निराकार होने के कारण क्रिया नहीं कर सकती । पुण्य-पाप रूप क्रिया आत्मा का स्पर्श नहीं कर सकती । श्रात्मा स्वभाव से ही निर्लेप है, अतः वह परमात्मा है | उससे पर दूसरा कोई परमात्मा नहीं है । जो स्वर्ग, नरक मोक्ष आदि की प्ररूपणा करते हैं, वे दुनिया को ठगते हैं। किसी किसी की ऐसी मान्यता है कि आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी - इन पाँच भूतों से पच्चीस तत्त्व उत्पन्न हुए हैं; वही आत्मा है । जब मृत्यु होती है तो पाँचों तत्व अपने-अपने में मिल जाते हैं। पाँच भूतों से भिन्न न कोई आत्मा है, न परमात्मा है । न पाप है न पुण्य है। यह कल्पनाएँ कुमतियों का भ्रम मात्र हैं । इनका त्याग करो और निश्चिन्त होकर, निर्भय होकर मज़ा - मौज उड़ाओ । ऐसा मानने वाला अक्रियावादी नास्तिक भी कहलाता है । क्रियावादियों के ८४ प्रकार हैं। पाँच कारण - समवाय और छठा स्वेच्छा से उत्पन्न जगत्, इस प्रकार छह के स्व- श्राश्रयी और पर श्राश्रयी १२ भेद होते हैं । इन बारह भेदों को सात तत्वों पर (पुण्य-पाप को छोड़ कर) लागू करने से ८४ भेद हुए । ६x२७ = ८४ | क्रियावादी की यह मान्यता है आत्मा को पुण्य-पाप का फल भोगना नहीं पड़ता । उससे पूछना चाहिए कि अगर पुण्य-पाप के फल न भोगने पड़ते होते तो संसार में कोई सुखी और कोई दुःखी क्यों है ? कोई प्रतिदिन चार बार षट्स भोजन आरोगता है, पाँच बार पोशाक बदलता है और संसार के मनमाने सुख भोगता है । दूसरा रात के चौथे पहर में उठ कर भूखा जङ्गल में जाकर लकड़ियाँ काटता है और भारा बना कर सिर पर लाद कर दोपहर तक भटक कर बेचता है । तब उन पैसों से अनाज खरीदता है, हाथ से पीसता है, तब कहीं रूखी-सूखी रोटी से पेट भर पाता है । प्रतिदिन इतनी मुसीबत सहन करने के पश्चात् भी कभी संतोष के साथ
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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