SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८] ® जैन-तत्त्व प्रकाश, कलाएँ सीख लेते हैं । महल, मकान, वस्त्राभूषण, वरतन, पकवान आदि सब चीजें उद्योग से ही तैयार होती हैं और उद्योग से ही भोगी जा सकती हैं। मिट्टी से सोना, समुद्र की सीप में से मोती, पत्थर से हीरा भी उद्योग के द्वारा ही निकलता है। उद्यम करने से ही उदरपोषण होता है। बिल्ली उद्यम करती है तभी वह दूध और मलाई पाती है। परदेश में जाकर भाँति-भाँति के धंधे करके मनुष्य अपना निर्वाह करते हैं । मधु-मक्खियों का मधु, मकड़ी का जाला और पक्षियों का घौंसला उद्योग से ही बन कर तैयार होता है । निरुद्यमी मनुष्य, निरुद्यमी पशु-पक्षी और निरुद्यमी कीड़ी भूखों मरती है। उद्योग करने से ही रामचन्द्रजी सीता का समाचार पा सके थे और सीता को पुनः प्राप्त कर सके थे । उद्यम करके ही लक्ष्मण रावण को मार सके थे। उद्योग करके कृष्ण द्रौपदी को लाये थे । केशी श्रमण ने उद्योग किया तो ही परदेशी राजा धर्म के मार्ग पर आकर स्वर्ग प्राप्त कर सका । अथिक क्या कहा जाय, सच्चे दिल से उद्यम करे तो उस उद्यम के प्रताप से स्वल्प समय में ही अनन्त, अक्षय, अव्यावाध सुख की प्राप्ति हो सकती है। इस प्रकार पंच कारण-समवाय का विवाद अनादि काल से चला आ रहा है। यह पाँचों एक-एक एकान्त को ग्रहण करके अपना-अपना पक्ष खींचते हैं और दूसरे पक्ष को मिथ्या कहते हैं । अतएव इन पंचवादी गुरुओं की मान्यता को लौकिक गुरुगत मिथ्यात्व कहते हैं। यह पाँचों अपना-अपना एकान्त त्याग कर एकत्र हो जाएँ अर्थात् एकांत छोड़ कर पाँचों को यथायोग्य कारण मानने लगें तो न्याय-पक्ष आता है और मिथ्यादृष्टि के बदले सम्यग्दृष्टि आ जाती है । इस विषय में एक दृष्टान्त लीजिए; किसी जगह पाँच अंधे बैठे थे। उसी समय उधर से एक हाथी निकला । पाँचों अंधे हाथी के पास पहुँचे । वहाँ उन्होंने हाथी के एक-एक अंग का स्पर्श किया, उस पर हाथ फेरा और लौट गये । लौट कर वे आपस में हाथी के आकार की चर्चा करने लगे। एक ने कहा-हाथी खंभा सरीखा है। दूसरा कहता है-नहीं, हाथी अँगरखे की बाँह सरीखा है। तीसरे ने कहाछाजला (प) सरीखा है । चौथा बोला-झाडू सरीखा है। पाँचवें ने कहातुम चारों झूठे हो। हाथी तो चबूतरा जैसा होता है ! इस प्रकार कह कर
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy