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________________ ॐ सूत्र धर्म [४८५ (१०) सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानक-पूर्वोक्त २७ प्रकृतियों का तथा संज्वलन लोभ का उपशम या क्षय करने वाले जीव की अवस्था को सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान कहते हैं । यह जीव अव्यामोह, अविभ्रम, शान्तिस्वरूप होता है ।जघन्य उसी भव में और उत्कृष्ट तीसरे भव में मोक्ष पाता है । (११) उपशान्तमोहनीय गुणस्थानक-मोहनीय कर्म की २८ प्रकतियों को राख से अग्नि को ढंकने के समान, उपशान्त करता है, उस जीव की अवस्था को ११ वाँ गुणस्थानक कहते हैं। उस जीव को यथाख्यात चारित्र होता है । इस गुणस्थान में मृत्यु हो जाय तो अनुत्तरविमान में उत्पन्न होता है और वहाँ से मनुष्य होकर मोक्ष पाता है। अगर उपशम किये हुए संज्वलन लोभ का उदय हो जाय (जैसे वायु से राख उड़ जाने पर दबी हुई आग फिर चमकने लगती है) तो नीचे गिरता हुआ दसवें, नौवें गुणस्थानक में होता हुआ आठवें में आता है । यहाँ सावधान होकर अगर क्षपक श्रेणी आरंभ करे तो उसी भव में मोक्ष पा लेता है । कदाचित् कर्मयोग से गिरतेगिरते पहले गुणस्थान तक जा पहुँचा तो देशोन अर्धपुद्गलपरावर्तन काल में मोक्ष प्राप्त करता है। (१२) क्षीणमोहनीयगुणस्थानक-मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय करने पर इस गुणस्थानक की प्राप्ति होती है। इस गुणस्थान में २१ गुणों की प्राप्ति होती है-(१) क्षपकश्रेणी (२) क्षायिक भाव (३) क्षायिक सम्यक्त्व (४) क्षायिक यथाख्यात चारित्र (५) करणसत्य (६) भावसत्य (७) योगसत्य (८) अमायो (६) अकषायी (१०) वीतरागी (११) भावनिर्ग्रन्थ (१२) संपूर्ण संवुड (१३) सम्पूर्ण भावितात्मा (१४) महातपस्वी (१५) महासुशील (१६) अमोही (१७) अविकारी (१८) महाज्ञानी (१६) महाध्यानी (२०) वर्धमान परिणामी (२१) अप्रतिपाती। ___उत्तर-चारित्रमोहनीय की अपेक्षा दर्शमोहनीय बादर है और इसकी निवृत्ति आठवें गुणस्थान में होती है। अतः इसे निवृत्तिबादर कहा है और किंचितमात्र चारित्र मोहनीय कर्म की प्रकृति सत्ता में रहने के कारण नौवों गुणस्थान अनिवृत्तिवादर कहा गया है। दोनों नाम सापेक्ष हैं । आठवे का दूसरा नाम 'अपूर्वकरणगु०' भी है । सत्त्व केवल्लीगम्य ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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