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________________ ४७८] ® जैन-तत्त्व प्रकाश म में चन्द्र सोहता है और मनुष्यों में भरत महाराज सोहते हैं, इत्यादि । श्रागमप्रमाण---'सुचिन्नकम्मा सुचिन्नफला भवंति' अर्थात् शुभ कर्म के फल शुभ ही होते हैं। तथा देवायु, मनुष्यायु, शुभ अनुभाग इत्यादि पुण्य प्रकृतियों का जो कथन शास्त्र में है, वह आगमप्रमाण समझना चाहिए। (४) पाप तत्त्व पर चार प्रमाण-प्रत्यक्ष-नीच जाति, नीच कुल, कुरूप और सम्पत्ति की हीनता देखकर प्रत्यक्ष से पापी समझना । अनुमानकिसी दुःखी जीव को देखकर अनुमान करना कि इसके पाप का उदय हो रहा है। उपमा-यह बेचारा नरक जैसे दुःख भोग रहा है । आगम-पाप की प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेश इत्यादि पापकर्म के बन्धन का शास्त्र में जो कथन है वह । (५) अास्रव तत्व पर चार प्रमाण-प्रत्यक्ष-मन वचन और काय के प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले व्यापार से आस्रव को पहचानना । अनुमानअवतीपन देखकर अनुमान से आस्रव को जानना । उपमा-तालाब का नाला, घर का द्वार, सुई का नाका (छेद), इत्यादि दृष्टांतों से आस्रव का स्वरूप समझना । आगम प्रमाण-अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन, इन चारों के क्रोध, मान, माया, लोभ, इन सोलह कषायों के दल रूप स्कंध आत्मप्रदेशों के साथ सम्बन्ध करते हैं, ऐसा आगम से जानना। (६) संवर तत्त्व पर चार प्रमाण–प्रत्यक्ष प्रमाण-देश से योग का निरोध किया देखकर साधु या श्रावक को संवरवान् जानना और पूर्ण रूप से योगों का निरोध किया देखकर अयोगी को संवरवान् जानना । अनुमानप्रमाण- सावध योग के त्याग से संवरवान् होने का अनुमान करना । उपमाप्रमाण-जैसे नाले को रोकने से तालाब में जल का आस्रव रुक जाता है, पर का द्वार बन्द करने से कचरा आना रुक जाता है, नौका का छिद्र मूंद देने से पानी घुसना बन्द हो जाता है, इसी प्रकार योगों का निरोध करने से आस्रव रुक कर संबर होता है, इस तरह की उपमाओं से संबर की पहचानना। आगम प्रमाण-योग का निरोध होने से प्रात्मा भकम्प,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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