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________________ जैन-तत्त्व प्रकाश ४७४ ] कहलाता है । जैसे— सींग से भैंस को, कलगी से मुर्गे को, दाँत से सुअर को, नरव से बाघ को, अयाल (केसर) से केसरी सिंह को, मूँड़ से हाथी को जानना । ३ दिडिसाम के दो भेद हैं— सामान्य और विशेष | जैसे एक रुपया को देखने से उस सरीखे अनेक रुपयों का ज्ञान होना सामान्य दिट्ठिसाम कहलाता है । इसी प्रकार मारवाड़ के एक धोरी (बैल) को देखने से उस सरीखे अनेकों को जानना, देशान्तर के किसी एक मनुष्य को देखकर उस सरीखे अनेक मनुष्यों को पहचान लेना । एक सम्यग्दृष्टि को देख कर उस जैसे अनेकों को जानना । विशेष वह कहलाता है, जैसे- किसी विचक्षण साधुजी ने बिहार करते हुए रास्ते में बहुत-सा वास उगा देखा । गड़हों वगैरह में पानी भरा देखा; बाग-बगीचे हरे-भरे देखे, उससे यह अनुमान किया कि भूतकाल में यहाँ बहुत वर्षा हुई थी। आगे जाकर देखा तो गाँव छोटा, गाँव में श्रावकों के घर थोड़े, श्रावकों के घरों में सम्पत्ति भी थोड़ी है, पर श्राविकाएँ बहुत भक्त हैं, उदार परिणामी हैं, उदार भाव से दान देने वाली हैं । तब ऐसा अनुमान करना कि यहाँ इन श्रावकों का कुछ भला होने वाला है । फिर साधुजी और आगे चले तो क्या देखते हैं कि पहाड़ और पर्वत बड़े मनोहर हैं, हवा बहुत सुन्दर है, ग्राम की तथा बाहर की हवा बहुत सुहावनी है । यह सब देखकर यह समझना कि भविष्य में यहाँ कुछ शुभ होने वाला है । इस प्रकार तीनों कालों की अच्छी स्थिति जानना । 1 इसी तरह कोई मुनि विहार करते-करते, रास्ते में विना वास की भूमि देखते हैं, जलाशय खाली और बाग-बगीचे सूखे देखते हैं, तो अनुमान करते हैं कि भूतकाल में यहाँ वर्षा कम हुई है । आगे चलने पर देखते हैं कि ग्राम बड़ा है, ग्राम में श्रावकों के घर भी बहुत हैं, घरों में सम्पति भी बहुत है, किन्तु लोग श्रभिमानी, विनय आदि गुणों से रहित, और अनुदार हैं। इससे अनुमान किया कि वर्त्तमान काल में यहाँ कुछ शुभ होता दीखता है। आगे चल कर देखा कि पर्वत मनोज्ञ दिखाई देते हैं, हवा अड़गम- बड़गम चलती है, ग्राम के भीतर और बाहर सुहावना नहीं लगता, ज़मीन हिलती (भूकम्प होता) है, तारे खिरते हैं इत्यादि, यह सब कृपण
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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