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________________ ॐधर्म प्राप्ति । ४७१ देवलोक के देव मदंग के आकार में देखते हैं। ग्रेवेयकों के देव फूलों की चंगेरी (छावड़े) के आकार में देखते हैं। अनुत्तर विमान के देव कुमारिका की कंचुकी के आकार में देखते हैं। मनुष्य और तियञ्च अवधिज्ञान से जाली के आकार में अनेक प्रकार से देखते हैं। (४) बाह्याभ्यन्तर द्वार-नारकों और देवों को आभ्यन्तर अवधिज्ञान होता है, तिर्यञ्चों को बाह्य अवधिज्ञान होता है और मनुष्य को बाह्य तथा पाभ्यन्तर-दोनों प्रकार का अवधिज्ञान होता है। (५) अनुगामी-अननुगामी द्वार-नारकों और देवों को अनुगामी (एक जगह से दूसरी जगह जाने पर भी साथ रहने वाला) ज्ञान होता है । मनुष्य एवं तिर्यञ्च को अनुगामी तथा अननुगामी (जिस जगह उत्पन्न हुआ हो वहीं रहने वाला, अन्यत्र साथ न जाने वाला) दोनों प्रकार का ज्ञान होता है। (६) देश-सर्वद्वार-नारकों, देवों और तिर्यञ्चों को देश से (अपूर्ण) अवधिज्ञान होता है। मनुष्यों को देश से और सर्व से (पूर्ण) दोनों प्रकार का ज्ञान होता है। (७) हीयमान-वर्धमान द्वार-जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद घटता जाय वह हीयमान कहलाता है, जो निरन्तर बढ़ता जाय वह वर्धमान कहलाता है और जो उत्पचि के समय जितना था उतना ही रहे-न घटेन बढ़े, वह अवस्थित कहलाता है । नारकों और देवों को अवस्थित अवधिज्ञान होता है। मनुष्य और तिर्यश्च को तीनों प्रकार का अवधिज्ञान होता है। (८) प्रतिपाती-अप्रतिपाती द्वार---एक बार उत्पन्न होकर जो नष्ट हो जाय वह प्रतिपाती और कायम रहने वाला अप्रतिपाती अवधिज्ञान कहलाता है। नारकों और देवों को अप्रतिपाती अवधिज्ञान होता है। मनुष्य एवं तिर्यञ्च को दोनों प्रकार का अवधिज्ञान होता है । (४) मनःपर्यवज्ञान-संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के मनोगत भाव को जानने वाला ज्ञान मनःपर्यव कहलाता है। इसके दो भेद हैं-[१] ऋजुमति और
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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