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________________ ४७० ] * जन-तत्व प्रकाश * आयु वाले देव असंख्यात द्वीप-समुद्र देखते हैं। नीची दिशा में पहले दूसरे देवलोक के देव पहले नरक तक देखते हैं। तीसरे-चौथे देवलोक के देव दूसरे नरक तक देखते हैं । पाँचवें-छठे देवलोक के जीव तीसरे नरक तक देखते हैं। सातवें-आठवें देवलोक के जीव चौथे नरक तक देखते हैं। नौवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें देवलोक के जीव पाँचवें नरक तक देखते हैं । नव ग्रैवेयक * के देव छठे नरक तक देखते हैं और चार अनुत्तर विमानों के देव सातवें नरक तक देखते हैं। सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव कुछ कम सम्पूर्ण लोक को जानते-देखते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यश्च ज० अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उ० असंख्यात द्वीप-समुद्र देखते हैं। संज्ञी मनुष्य ज० अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उ० सम्पूर्ण लोक तथा लोक के बराबर अलोक में असंख्यात खंड देखने में समर्थ होता है ।+ (३) संस्थानद्वार-अवधिज्ञान से नारकी तिपाई के आकार में देखते हैं । भवनपति देव टोपले के आकार में देखते हैं । व्यन्तर देव पटह (ढफ) के आकार में देखते हैं। ज्योतिषी झालर के आकार में देखते देखते हैं । बारह * कहीं-कहीं पहले से छठे अवयक तक के देव छठे नरक तक और ऊपर के तीन वेयकों के देव सातवें नरक तक जानते हैं, ऐसा लिखा है। ___+ जो अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को देखता है, वह काल से श्रावलिका के असंख्यात. भाग काल की बात जानता है। जो क्षेत्र से अंगुल के संख्यातवें भाग में देखता है, वह एक श्रावलिका के संख्यातवें भाग की बात जानता है। क्षेत्र से जो एक अंगुल जानता है, वह काल से श्रावलिका से कुछ कम जानता है। पृथक्त्व (२ से ) अंगुल क्षेत्र देखने वाला पूरी श्रावलिका को जानता है। एक हाथ देखे तो अन्तमहर्त्त की बात जानता है । एक धनुष देखे तो पृथक्त्व मुहूर्त देखता है। एक कोस क्षेत्र देखे तो एक दिवस की बात जानता है। एक योजन देखने वाला दिवस-पृथक्त्व देखता है। २५ योजन देखने वाला कुछ कम एक पक्ष को देखता है। भरत क्षेत्र को पूरा देखने वाला पूरा पक्ष देखता है। जम्बूद्वीप को देखने वाला एक मास की बात जानता है। अढाई द्वीप देखे तो एक वर्ष की बात जानता है। १५वाँ रुचक द्वीप देखने वाला पृथक्त्व वर्ष जानता है । संख्यात द्वीप-समुद्र देखने वाला असंख्यात काल जाने । परमावधिज्ञान उपजे तो लोकालोक देखता है । और अन्तमुहूर्त में केवल ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। अलोक में अवधिज्ञान से देखने योग्य कुछ भी नहीं है, सिर्फ अवधिज्ञान की शक्ति बतलाई गई है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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