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________________ ४६२ ] जैन-तत्त्व प्रकाश (२) का 'जीव' ऐसा नाम रख 'जीव' कहलाएगी। किसी चित्र आदि की स्थापना कर जीव तत्र पर चार निक्षेप - किसी भी जीव या अजीव वस्तु लिया जाय तो वह वस्तु नामनिक्षेप से जीव का स्वरूप बतलाने के लिए किसी ली जाय तो वह वस्तु स्थापनानिक्षेप से (३) क्षायिक भाव के नौ भेद - (१) दानलब्धि, (२) लाभलब्धि, (३) भोगलब्धि, : ४) उपभोगलब्धि, (५) वीर्यलब्धि (६) कंवलदर्शन (७) कंवलज्ञान (८) क्षायिक चारित्र । (४) क्षायोपशमिक भाव के १८ भेद - (१) मतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मन:पर्ययज्ञान (५-६) तीन अज्ञान (८) चक्षुदर्शन ६) श्रचक्षदर्शन (१०) अवधिदर्शन (११-१५) दान आदि पाँच लब्धियाँ (१६) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व (१७) क्षायोपशमिक चारित्र (१८) संयमासंयम । (५) पारिणामिक भाव के ३ भेद - भव्यत्व, अभव्यत्व, जीवत्व । पाँचों भावों के विशेष भेदः- (१) श्रदयिक भाव के दो भेद हैं-उदय और उदयनिप्पन्न । आठों कर्मों का उदय होना उदय कहलाता है और उदयनिष्पन्न के दो भेद हैं-१ जीव उदयनिष्पन्न और २ जीव उदयनिष्पन्न । इनमें जीवउदयनिष्पन्न के ३१ भेद हैं-गति ४, काय ६, लेश्या ६, कषाय ४, वेद ३, मिथ्यात्व, अवत, अज्ञान, असंज्ञा, श्राहारत्था, संसारस्था, श्रसिद्धत्व और केव लित्व । अजीव उदयनिष्पन्न के ३० भेद हैं- शरीर ५, शरीर पारणत पुद्गल ५, वर्ण ५, गंध २, रस ५, स्पर्श ८ । (२) श्रपशमिक भाव के दो भेद-उपशम और उपशमनिष्पन्न । इनमें से आठ कर्मों का उपशम होना उपशम कहलाता है । उपशमनिष्पन्न के ११ भेद हैं- कषाय ४, राग-द्वेष, दर्शनमोह, चारित्रमोह, दर्शनलब्धि, चारित्रलब्धि, छद्मस्थता और वीतरागता । (३) क्षायिक भाव के दो भेद -क्षय और क्षयनिष्पन्न । आठ कर्मों का क्षय होना क्षय है और क्षयनिष्पन्न के ३७ भेद हैं- ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ६, वेदनीय २, मोहनीय ८ (कषाय ४, राग, द्वेष, दर्शनमोह, चारित्रमोह), आयुष्य ४, नाम २, गोत्र २, अन्तराय ५, इन सब के क्षय से होने वाले भाव । (४) क्षायोपशमिक भाव के दो भेद - क्षयोपशम और क्षयोपशमनिप्पच | आठ कर्मों का क्षयोपशम होना क्षयोपशम कहलाता है; क्षयोपशम निष्पन्न के ३० भेद हैंज्ञान ४, अज्ञान ३, दर्शन ३, दृष्टि ३, चारित्र ४ ( पहले के), दानादि लब्धियाँ ५, पाँच इन्द्रियों की लब्धियाँ ५, पूर्वघर, आचार्य, द्वादशांगी के ज्ञाता । (५) पारिणामिक भाव के दो भेद - सादि परिणामी और अनादि परिणामी । इनमें सादि परिणामी के अनेक भेद हैं। जैसे-पुरानी दारू, पुराना घी, पुराने चावल, बादल, बादल के वृक्ष, गंधर्वनगर, उल्का, दिशादाह, गर्जारव, विद्युत्, निर्घात, बालचन्द्र, यक्षचिया,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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