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________________ - - - सत्र धर्म [४६१ (२) कुप्रावचनिक-पूर्वोक्त छाल, पने, व्याघ्रचर्म मगचर्म आदि धारण करने वाले साधु वैरागी आदि अपने अभीष्ट मंत्रों को अर्थ-सहित, उपयोगपूर्वक जपते हैं, वह कुप्रावचनिक भाव आवश्यक है । (३) लोकोचर--साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, प्रातःकाल और सायंकाल शुद्ध उपयोग' सहित जो आवश्यक क्रिया करते हैं, वह लोकोत्तर भाव आवश्यक है। ___ इन चार निक्षेपों में से पहले के तीन अर्थात् नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप अवस्तु हैं। अर्थात् तीन निक्षेपों में वर्तमान रूप वस्तु विषय नहीं होती। चौथा भावनिक्षेप वस्तु को विषय करता है । चारों निक्षेपों का वर्णन श्रीअनुयोगद्वारसूत्र में किया गया है। नौ तत्त्वों पर चार निक्षेप (१) जीव तत्व पर चार निक्षेप-जीव अथवा अजीव किसी भी वस्तु का जीव नाम रख लिया जाय तो वह वस्तु नाम-जीव कहलाएगी। चित्र अथवा मूर्ति आदि में जीव की स्थापना कर लेना स्थापना जीव है । सामान्य अपेक्षा द्रव्यजीव कोई नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो पहले जीवरही हो किन्तु वर्तमान में न हो। यह भी संभव नहीं कि वर्तमान में जो वस्तु जीव नहीं है और भविष्य में जीव होने वाली हो । जीव सदा जीव था और जीव ही रहेगा। विशेष की अपेक्षा-आगे देव होने वाले को द्रव्यदेव जीव कह सकते हैं, अथवा पूर्वजन्म में जो देव था किन्तु अब नहीं है, उसे द्रव्यदेव-जीव कह सकते हैं। प्रौदयिक भाव, औपशमिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, क्षायिकभाव और पारिणामिक भाव में वर्तमान जीव माव-निक्षेप से जीव है।* • * पाँचों भावों के सब मिलकर ५३ भेद होते हैं-औदयिक के २१, श्रीपशमिक के २, क्षायोपशमिक के १८, क्षायिक के है और पारिरणाभिक के ३ भेद । (१) औदधिक भाव के २१ भेद-गति ४, कपाश्र ४; लेश्या ६ वेद ३, असिद्धत्व १, अज्ञान अवतित्व १, मिथ्यात्व१.। -:(२) औपशमिक के २ भेद-उपशम सम्यक्त्व और 'उपशम चारित्र ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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