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________________ ४५२ ] * जैन-तत्त्व प्रकाश * चलन-गुण के निमिच से गति कर रहे हैं उन्हें धर्मास्तिकाय मानता है। भूत भविष्यकाल को ग्रहण नहीं करता। शब्द नय देशप्रदेश की अपेक्षा नहीं रखना । वह धर्मास्तिकाय के स्वभाव को ही धर्मास्तिकाय मानता है। समभिरूढ़ नय धर्मास्तिकाय के स्वरूप के ज्ञाता को धर्मास्तिकाय मानता है। एवंमत नय सप्तभंगी और सप्त नय आदि से धर्मास्तिकाय के गुणों को जो सिद्ध कर सके ऐसे ज्ञानी-ज्ञाता–को ही धर्मास्तिकाय मानता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय पर भी सातों नय समझने चाहिए। विशेषता यह है कि धर्मास्तिकाय के विवेचन में जहाँ चलन सहाय गुण बतलाया है वहाँ अधास्तिकाय में स्थिति सहाय गुण कहना चाहिए । आकाशास्तिकाय पर सात नय इस प्रकार हैं:-नैगमनय आकाश के एक प्रदेश को भी आकाशास्तिकाय मानता है। संग्रहनय स्कंध, देश की अपेक्षा न रखता हुमा 'एगे लोए, एगे अलोए' लोकाकाश एक है, अलोकाकाश है, ऐसा मानता है। व्यवहारनय ऊर्व, अधो और तिर्यक् लोक के आकाश को आकाशास्तिकाय मानता है । ऋजुत्रनय श्राकाश-प्रदेश में रहे हुए जीव और पुद्गल षड्गुण हानि-वृद्धि के प्रमाण में जो क्रिया करते हैं, उसे आकाशास्तिकाय मानता है । शब्दनय अवगाह (अवकाश) लक्षण वाली पोलार को आकाशास्तिकाय ___x सप्तभंगी का विवरण-(१) प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अस्ति रूप है। इसलिए पहला भंग स्यादस्ति (स्यात्+अस्ति) है। (२) वही पदार्थ पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नास्ति रूप है अर्थात् नहीं है, अतः दूसरा भङ्ग स्थानास्ति (स्यात् + नास्ति) हैं। (३) समस्त पदार्थ अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव से अस्तिरूप हैं और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नास्ति रूप हैं। इस प्रकार कम से दोनों की विवक्षा करने पर पदार्थ स्यादस्ति स्याचास्ति रूप है। (४) स्व-पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से एक साथ वस्तु का स्वरूप कहा नहीं जा सकता; अगर अस्ति रूप कहा जाय तो नास्तित्व का अभाव होता है और यदि नास्ति रूप कहा जाय तो अस्तित्व का अभाव होता है। इस कारण यस्तु स्यादवक्तव्य (स्यात् + अवक्तव्य) है। (५) स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तु में अस्तित्व है और साथ ही पहले कहे अनुसार श्रवक्तव्यता भी है। इस प्रकार स्वचतुष्टय (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) और एक साथ रव-चतुष्टय की अपेक्ष वस्तु स्यादस्ति अवक्तन्य रूप है। (६) परचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु में नास्तित्व है और एक साथ स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा प्रवक्तव्यता भी है। दोनों के संयोग से वस्तु स्वाचास्ति श्रवक्तव्य रूप भी है। (७) क्रम से स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा अवक्तब्ध रूप भी है। दोनों के संयोग से वस्तु स्यादस्तिनास्ति श्रवक्तव्य रूप है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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