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________________ । ४५१ रहती। ऋजुसूत्रनय उपयोगवान् वस्तु को जीत्र मानता है ।* शब्द नय जहाँ जीव का अर्थ पाया जाय उसे जीव मानता है। जैसे-अतीत काल में जीव था, वर्चमान काल में जीन है और भविष्य काल में जीव रहेगा। शब्द नय द्रव्य आत्मा को जीव मानता है, क्यों कि तैजस और कार्मण शरीर के पुद्गल जीव के साथ अनादि काल से लगे हुए है और लगे रहेंगे। समभिरूढ़ नय शुद्ध सत्ताधारक, ज्ञान आदि निज गुणों में रमण करने वाले क्षायिक सम्बत्वी को जीव मानता है । एवंभूत नय सिद्ध भगवान की आत्मा को ही जीव मानता है। (२) अजीद तत्त्व-अजीव तत्त्व के मुख्य पाँच भेद हैं और उन पाँचों पर सातों नय लागू पड़ते हैं । पाँच भेद यह हैं:--(१) धर्मास्तिकाय (२) अधर्मास्तिकाय (३) आकाशास्तिकाय (४) काल और (५) पुद्गलास्निाय! नैगमनय धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को भी धर्मास्तिकाय मानता है, क्यों कि उसके एक प्रदेश में भी गमन सहायक होने के गुण की मत्ता है । संग्रहनय जड़ और चेतन-सभी में चलनसहाय रूप गुण की सत्ता धर्मास्तिकाय की है अतः क्रिया करने वाले प्रयोगसा पुद्गलों को धर्मास्तिकाय मानता है। यह प्रदेशादि को ग्रहण नहीं करता। व्यवहारनय जीव पुद्गल को चलन-शक्ति में जो षड्गुण+ हानि-वृद्धि होती है उसे धर्मास्तिकाय मानता है। ऋजुसूत्र नय जो जीव और पुद्गल वर्तमान काल में धर्मास्तिकाय के ___ * उपयोग दो प्रकार का है-शुभ उपयोग और अशुभ उपयोग। अशुभ उपयोग मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से होता है, अतः वह अजीव है। पर यहाँ नर की अपेक्षा से उसे जीव गिना है। + षड़ गुण हानि-वृद्धि का स्वरूप-(१) संख्यात गुण अधिक (२) असंख्यातगुण अधिक (३) अनन्तगुण अधिक (४) संख्यात भाग अधिक (५, असंख्यात भाग अतिक (६) अनन्त भाग अधिक; इसी प्रकार-(७) संख्यात गुण हीन (८) असंख्यात गुण हीन (8) अनन्त गुण हीन (१०) संख्यात भाग हीन (११) असंख्यात भाग हीन (१२) अनन्त भाग हीन । इस तरह तीन बोल गुण प्राश्रित और तीन बोल भाग आश्रित, यह छह बोल अधिकता (वृद्धि) के हैं और बह बोल हीनता (हानि) के हैं। इन बारह में में जहाँ श्राउ बोल पाये जाएँ वह चउठाणवडिया, जहाँ छह बोल पाये जाएँ वह तिठागवडियो (त्रिम्यानपतिता), जहाँ चार बोल पाये जाएँ वहाँ विठाणवडिया और जहाँ दो बोल पाये जाएँ वहाँ एकठाणवडिया हानि-वृद्धि, समझनी चाहिए।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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