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________________ ® जैन-तत्त्व प्रकाश नपुंसकलिंग होता है । कोई शब्द एक वचन वाला और कोई बहुवचन वाला होता है । इस प्रकार लिंग, वचन, कारक आदि का भेद शब्दों में भले हो पर उन सब के अर्थ में भेद नहीं है, यह ऋजुत्र नय का अभिप्राय है । किन्तु शब्दनय लिंग आदि के भेद से अर्थ में भेद मानता है । हाँ, काल आदि का भेद न हो तो अलग-अलग शब्दों के अलग-अलग अर्थों को यह नय नहीं देखता। उदाहरणार्थ-इन्द्र के अनेक नाम हैं-इन्द्र, शक्र, पुरन्दर, देवराज आदि । इन सब शब्दों में अर्थ की जो विशेषता है, उसकी उपेक्षा करके सब को एकार्थक मानना ही ऋजुत्रनय का अभिप्राय है । (६) समभिरूढनय-'सम्-सम्यक्प्रकारेण यथापर्यायैरारूढमर्थ तथैव भिन्नवाच्यं मन्यमानः समभिरूढो नयः।' समभिरूढनय, शब्दनय से भी सूक्ष्म है। शब्दनय अनेक पर्यायवाची शब्दों का अर्थ एक ही मानता है जब कि समभिरूढनय पर्यायवाची शब्दों के भेद से अर्थ में भी भेद स्वीकार करता है। इस नय के अभिप्राय से कोई भी दो शब्द एक अर्थ के वाचक नहीं होते । पहले इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्दों की जो एकार्थकता वतलाई है, वह इस नय को स्वीकार नहीं है। इस के अभिप्राय से इन्द्र का अर्थ अलग है, शक्र का अर्थ भिन्न है और पुरन्दर आदि शब्द भी अलग अर्थ के वाचक हैं। (७) एवंभूतनय-भूतशब्दोऽत्र तुल्यवाची, एवं यथा वाचके शब्दे यो व्युत्तात्तिरूको विद्यमानोऽर्थोऽस्ति तथाभततुल्यार्थक्रियाकारि एव वस्तु मन्यमानः एवंभूतो नयः।' भूत शब्द यहाँ तुल्य का वाचक है । अतः जिस शन्द्र का जो व्युत्पत्ति रूप अर्थ होता है, उसी के अनुसार अर्थक्रिया करने वाले पदार्थ को ही उस शब्द का वाच्य मानने वाला नय एवंभूतनय कहलाता है । वस्तु का जैसा काम, जैसा परिणाम वैसा ही उसका नाम होना चाहिए, यहाइस अय की मान्यता है। तात्पर्य यह है कि एवंभूतनय पूर्वोक्त सभी नसों से मदम है। इस नयको अविवाश सेनामी मान लिया-शब्द हैं अर्थात् किसी न किसी प्रिया
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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