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________________ ® धर्म प्राप्ति [ ४३७ है, वह अनुभागबंध है। (१) ज्ञानावरणकर्म का फल आत्मा के अनन्त ज्ञानगुण को आच्छादित करना है । (२) दर्शनावरण कर्म का फल अनन्त दर्शन का आच्छादित होना है । (३) वेदनीग कर्म का फल आत्मा के अनन्त अव्याबाध आत्मिक सुख को रोकना है (४) मोहनीय कर्म का फल आत्मा के अनन्त क्षायिक सम्यक्त्त्व और चारित्र को प्रकट न होने देना है। (५) आयुकर्म का फल अक्षय स्थिति में रुकावट डालना है। (६) नामकर्म आत्मा के अमूर्तिक गुण का घात करता है । (७) गोत्रकर्म आत्मा के अगुरुलघु गुण का घात करता है । (८) अंतरायकी आत्मा की अनन्त पात्मिक शक्ति को रोकता है । कर्मों का रसोदय दो प्रकार से होता है । अभब्य और एकेन्द्रिय आदि जीवों के तीव्र रसोदय होने से वे पराधीन होकर आत्मिक गुणों को प्रकट करने में असमर्थ होते हैं जिन भव्य जीयों का रसोदय मन्द पड़ता जाता है, वे अकाम निर्जरा और सकामनिर्जरा के द्वारा ज्यों-ज्यों कर्मों का रस पतला होता जाता है, त्यों-त्यों उच्चता प्राप्त करते-करते अन्त में परिपूर्णता प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् आत्मिक गुणों को पूर्ण रूप से विकसित कर लेते हैं। प्रदेशबंध कार्मणवर्गणा के पुद्गलों के दलिकों का अमुक परिमाण में बँधना प्रदेशबंध कहलाता है। पाठों कर्मों के दलिक (प्रदेश) आत्मप्रदेशों के साथ किस प्रकार संबंधित हैं, यह दृष्टांत द्वारा समझाया जाता है । (१) जैसे बादलों के आड़े श्राजाने से सूर्य का प्रकाश मंद पड़ जाता है, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म के प्रदेश आत्मा के ज्ञान रूप प्रकाश को मंद कर देते हैं। (२) जैसे आँखों पर पट्टी बाँधने से पदार्थ दिखाई नहीं देते अथवा रंगीन चश्मा लगाने से पदार्थ अन्यथा रंग वाले दिखाई देते हैं, उसी प्रकार दर्शनावरण कर्म के कारण पदार्थ नहीं दिखाई देते अथवा यथार्थ रूप में दिखाई नहीं देते। (३) जैसे शहद से लिपटी तलवार चाटने पर पहले थोड़ी-सी मिठास मालूम होती है किन्तु जीभ कट जाने के कारण बाद में महान् वेदना होती है, उसी प्रकार सातावेदनीय में लुब्ध जीव थोड़ा-सा विकारी सुख प्राप्त करते हैं किन्तु
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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