SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जैन-तत्त्व प्रकाश - - - स्थितिबंध आत्मा के साथ कर्मों के बँधे रहने की कालमर्यादा को स्थिति कहते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट तीस कोडाकोड़ी सागरोपम की है। इन तीनों कर्मों का अवाधा काल * तीन हजार वर्ष का है। सातावेदनीय कर्म की स्थिति जघन्य दो समय की (ईरियावहिया क्रिया की अपेक्षा) है और उत्कृष्ट पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरोपम की है। अबाधाकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट डेढ़ हजार वर्ष का है । असातावेदनीय कर्म की स्थिति जघन्य १२ मुहूर्त और उत्कृष्ट ३० कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। मोहनीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ७० कोडाकोड़ी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ७ हजार वर्ष का है। आयुकर्म की स्थिति चारों गतियों की जो स्थिति बतलाई गई है उतनी ही समझनी चाहिए । वह इस प्रकार हैनारकों और देवों की जघन्य स्थिति १० हजार वर्षे की, उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की है। मनुष्य और तिर्यश्च की जघन्य अन्तर्महर्च की और उत्कृष्ट तीन पल्य की है। अबाधाकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात वर्ष की आयु वालों की भोगी जाने वाली आयु का तीसरा, नौवाँ, सत्ताईसवाँ भाग, यावत् अन्तिम आयु जब अन्तर्मुहूर्त रहता है, उसका भी तीसरा भाग समझना चाहिए । असंख्यात वर्ष की आयु वालों का अबाधाकाल छह मास का होता है। नाम और गोत्र की स्थिति जघन्य आठ मुहर्च की और उत्कृष्ट २० कोडाकोड़ी सागरोपम की है । इनका अबाधाकाल दो हजार वर्षे का है । इस प्रकार आयु का बंध होना स्थितिबंध है। अनुभागबंध बँधे हुए कर्मों में फल देने की जो न्यूनाधिक शक्ति उत्पन्न होती ॐ बन्ध और उदय के बीच का काल अबाधाकाल कहलाता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy