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________________ ॐ धर्म प्राप्ति [ ४०५ जीवननिर्वाह करते हैं, वह कर्मभूमि कहलाती है। ऐसी कर्मभूमियाँ पन्द्रह हैं—पाँच भरत (एक जम्बूद्वीप का, दोधातकीखण्डद्वीप के और दो पुष्करार्ध द्वीप के), पाँच ऐरवत और पाँच महाविदेह । ___जहाँ असि, मसि, कृषि रूप कर्म नहीं हैं, किन्तु दस प्रकार के कल्पवृक्षों * से मनुष्यों का निर्वाह होता है, वह भूमि अकर्मभूमि कहलाती है । ऐसी अकर्मभूमियाँ ३० हैं:-पाँच देवकुरु, पाँच उत्तर कुरु, पाँच हरिवास, पाँच रम्यकवास, पाँच हैमवत और पाँच हैरण्यवन । यहाँ पाँच-पाँच जो क्षेत्र गिनाये हैं वे पहले की भाँति एक-एक जम्बूद्वीप में, दो-दो धातकीखंड में और दो-दो पुष्करार्धद्वीप में हैं। हिमवान पर्वत की तथा शिखरिपर्वत की लवणसमुद्र में पूर्व और पश्चिम दिशा में चार-चार दाढ़ाएँ हैं। इन दादाओं पर सात-सात के हिसाब से सब मिल कर छप्पन अन्तर्वीप हैं। इनमें रहने वाले मनुष्य अन्तपिज मनुष्य कहलाते हैं। अन्तीपज मनुष्य भी अकर्मभूमि के मनुष्यों की तरह दस प्रकार के कल्पवृक्षों के द्वारा अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त करके निर्वाह करते हैं । .. इस प्रकार १५ अकर्मभूमियों के, ३० अकर्मभूमियों के और ५६ अन्तर्वीपों के मिलकर गर्भज मनुष्य १०१ प्रकार के हैं। पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से वे २०२ प्रकार के होते हैं और पूर्वोक्त १०१ सम्मूर्छि+ मनुष्यों को इनमें मिला देने पर कुल मनुष्य ३०३ प्रकार के हैं। ...* कल्पवृक्षों सम्बन्धी कथन प्रथम खण्ड में, छह आरा का स्वरूपं बताते समय विचारपूर्वक किया गया है। वहाँ देख लेना चाहिए। ___ + संमूर्छित जीवों की उत्पत्ति के १४ स्थान यह हैं-(१) विष्ठा (२) मूत्र (३) कफ (४) सेड़ा-नाक का मैल (५) वमन (६) पित्त (७) रसी-पूयपीव (८) शोणित (E) शुक्र (१०) सूखे हुए वीर्य आदि के फिर गीले हुए पुद्गल (११) मृतक का कलेवर-मुर्दा शरीर (१२) स्त्री-पुरुष का संयोग (१३) नगर की मोरियाँ-नालियाँ (१४) अन्य सब अशुचि के स्थान । यह चौदह वस्तुएँ जब मनुष्य के शरीर से अलग होती हैं तो अन्तमुहूर्त जितने समय में उनमें असंख्यात संमूर्धित मनुष्य उत्सन हो जाते हैं और मर जाते हैं । उनका स्पर्श करने से भी असंख्यात संमूर्छित मनुष्यों की बात होती है। अतः अशुचि के स्थानक की यर्तनों की जाये तो द्रव्य और भाव से बहुत लाभ होगा।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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